गढ़ बचाया, कद बढ़ाया:बेटे दुष्यंत की रणनीति को भेद नहीं पाई कांग्रेस, मां वसुंधरा राजे ने गढ़ जीतकर केंद्रीय नेतृत्व को फिर दिखाई ताकत
राजस्थान के पंचायत चुनाव में अपने गढ़ को बचाने के साथ कांग्रेस से ज्यादा सीटें जीतकर भाजपा जश्न मना रही है लेकिन यह जीत राजनीतिक रूप से पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की मानी जा रही है। कारण, अन्य तमाम दिग्गज नेताओं के इलाकों में न चुनाव था, न उनकी इतनी सक्रियता दिखाई दी। वसुंधरा राजे के इलाके में कमान उनके बेटे दुष्यंत ने संभाल रखी थी। जीत के साथ ही सीनियर नेता और पूर्व मुख्यमंत्री ने केंद्रीय नेतृत्व काे एक बार फिर राजस्थान में अपनी पकड़ और ताकत का अहसास करा दिया है। वसुंधरा राजे देश की उन चुनिंदा नेताओं में शामिल हैं जिनकी सीनियोरिटी और अनुभव को भाजपा के नेशनल लीडरशिप के आसपास ही आंका जाता है।
राजस्थान में हाल ही में संपन्न पंचायत चुनाव में कांग्रेस को पछाड़कर भाजपा ने अपना दम दिखा दिया है। हालांकि वर्ष 2015 के मुकाबले भाजपा का ग्राफ नीचे आया है। तब भाजपा ने 21 जिलों में अपना बोर्ड बनाया था, इस बार यह संख्या 12 रही। खास बात यह है कि तब भाजपा सत्ता में थी और आज विपक्ष में है।
वसुंधरा राजे के क्षेत्र में 8 में से 6 प्रधान
पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के निर्वाचन क्षेत्र में भाजपा का प्रदर्शन शानदार रहा है। वसुंधरा की स्कोर सीट को दो तरह से देखा जा सकता है। पहला उनके निर्वाचन क्षेत्र झालरापाटन से देखें तो सुनैल व पिड़ावा दोनों पंचायत समितियों में भाजपा के प्रधान बने हैं। दूसरा उनके संसदीय क्षेत्र से आंकलन करें तो झालावाड़ में जिला प्रमुख भाजपा का ही बना है, वहीं बारां में अभी चुनाव हुए ही नहीं है। ऐसे में वसुंधरा अपने गढ़ में काफी मजबूत रही है। पंचायतों के नतीजों को देखें तो वसुंधरा के गढ़ में भाजपा मजबूत हुई है। यहां आठ में से छह प्रधान भाजपा बने हैं।
बेटे दुष्यंत ने संभाला रखा था मोर्चा
झालावाड़ संसदीय क्षेत्र के पंचायत चुनाव में भाजपा की जीत वैसे तो वसुंधरा के नाम ही लिखी जायेगी लेकिन पर्दे के पीछे सारा जिम्मा उनके बेटे दुष्यंत ने संभाल रखा था। न सिर्फ पंचायत चुनाव में बल्कि विधानसभा चुनाव में भी वसुंधरा के बजाय दुष्यंत ही मैनेजमेंट देखते हैं। जब वसुंधरा पूरे राज्य में सक्रिय रहती है, तब दुष्यंत झालावाड़ व बारां काे संभालते हैं। इस पंचायत चुनाव में अंता में तो दुष्यंत एक थानेदार तक से झगड़ लिए थे। स्वयं वसुंधरा बड़े निर्णय तो लेती है लेकिन टिकट वितरण से लेकर प्रधान व प्रमुख बनाने तक में दुष्यंत की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण होती है।
दुष्यंत की कार्यशैली कैसी?
दरअसल, दुष्यंत पिछले पंद्रह साल से सक्रिय राजनीति में है। अधिकांश चुनावों में वसुंधरा जहां पूरे राजस्थान में दौरे करती है, वहीं झालावाड़ के अधिकांश निर्णय दुष्यंत करते हैं। उनकी नीति है कि वो छोटे से छोटे कार्यकर्ता तक स्वयं पहुंच जाते हैं। पंचायत चुनावों में गांव गुवाड़ तक प्रचार के लिए तो दुष्यंत भी नहीं गए, लेकिन टिकट वितरण करने से लेकर नेताओं को मैनेज करने का काम उन्होंने बखूबी किया। वो सरलता के साथ बड़े नेताओं को कुछ करने या कुछ नहीं करने के निर्देश दे देते हैं, जिसकी पालना भी होती है। इस चुनाव में भी उन्होंने भाजपा में जिसे चुनाव लड़ने अथवा नहीं लड़ने का बोला, वो सब मान गए। ग्रामीण क्षेत्र के नेताओं से फीडबैक व पार्टी के भविष्य के लाभ को ध्यान में रखते हुए ही टिकट वितरित किए थे।
वसुंधरा राजे के प्रभाव वाले सिर्फ झालावाड़ में हुए जिला परिषद के चुनाव
जानकारों की मानें तो झालावाड़ में वसुंधरा राजे का प्रभाव है। वे लगातार वहां से विधायक और सांसद भी रही हैं। उनका बेटा भी सांसद है। इस बार राजे और संगठन के बीच चल रही दूरी की वजह से वे खुद जिला परिषद और पंचायत चुनावों में नजर नहीं आई लेकिन झालावाड़ भाजपा का गढ़ भी है।
ये हैं 168 पंचायत समितियां, इनमें 100 पर भाजपा ने कब्जा जमाया
झालरापाटन पंचायत समिति में 21 में से 12 सीटों पर भाजपा का कब्जा रहा। कांग्रेस 9 सीटों पर सिमटकर रह गई। मनोहरथाना पंचायत समिति में 21 में से 17 सीटों पर भाजपा ने जीत दर्ज की, कांग्रेस को 4 सीटों पर जीत मिल पाई। डग पंचायत समिति में कांग्रेस ने 25 सीटों में से 17 सीटों पर जीत दर्ज की, जबकि भाजपा को 8 सीटें ही मिल पाईं। पिड़ावा पंचायत समिति में भाजपा ने 21 में से 17 सीटों पर जीत दर्ज की। यहां कांग्रेस केवल 3 सीटों पर ही सिमटकर रह गई। 1 सीट पर निर्दलीय ने कब्जा किया।
इन्हें श्रेय इसलिए नहीं
गजेंद्रसिंह शेखावत : पंचायत चुनाव में केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत की कोई खास भूमिका नहीं रही। जोधपुर संसदीय क्षेत्र में कहीं भी पंचायत चुनाव नहीं थे। निकाय चुनाव में भाजपा का प्रदर्शन कोई खास नहीं रहा। हाल ही में संपन्न निकाय चुनाव में बिलाड़ा में भाजपा अपना बोर्ड सुरक्षित रहने में सफल हो गए लेकिन पिपाड़ पर सत्रह साल से चल रहा भाजपा राज खत्म हो गया। इस बार यहां कांग्रेस का बोर्ड बन गया।
सतीश पूनिया : अगर राजस्थान भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष के रूप में सतीश पूनिया को देखें तो कांग्रेस को हराने का जश्न मनाया जा सकता है लेकिन हकीकत में इस चुनाव में उनकी भूमिका कोई खास नहीं रही। टिकट वितरण का काम सांसदों व विधायकों के भरोसे था। उनके स्वयं के विधानसभा क्षेत्र आमेर में अभी चुनाव नहीं हुए। यह सच है कि संगठनात्मक तौर पर पूनिया इस चुनाव में कुछ खास नहीं कर पाए। विधायकों व सांसदों ने अपने अपने दम पर चुनाव लड़ा। जीत और हार उनके ही खाते में गई।
अर्जुनराम मेघवाल : केंद्रीय राज्यमंत्री अर्जुनराम मेघवाल स्वयं चुनाव प्रचार में नहीं उतरे थे। यहां तक कि बीकानेर जिला परिषद में उनके बेटे रविशेखर मेघवाल स्वयं उम्मीदवार थे, लेकिन पिता अर्जुनराम प्रचार के लिए एक बार भी किसी गांव में नहीं गए। ऐसे में यहां भाजपा बुरी तरह हार गई। पार्टी को जिला परिषद की 29 में से सिर्फ छह सीट मिली। प्रमुख के चुनाव में छह में से महज तीन ने भाजपा को वोट दिए जबकि शेष तीन ने कांग्रेस के पक्ष में क्रास वोटिंग कर दी।