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यूपी में ओवैसी-AAP के दस्तक से किस-किसको होगा दर्द? जानें कैसे बढ़ेंगी भाजपा और सपा की चुनौतियां

लखनऊ | यूपी के सियासी समर में लगभग 15 महीने हैं, लेकिन सभी सियासी दल बिसात बिछाने में जुट गए हैं। बुधवार को एआईएमआईएम के मुखिया असदुद्दीन ओवैसी ने सुभासपा के प्रमुख ओम प्रकाश राजभर के साथ वर्ष 2022 का विधानसभा चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया। एक दिन पहले आम आदमी पार्टी ने भी यूपी विधानसभा चुनाव में उतरने का फैसला किया। मौजूदा सियासी हालात में जबकि भाजपा हाल ही में हुए विधानसभा उपचुनाव व विधान परिषद स्नातक व शिक्षक चुनाव में वर्चस्व कायम रखने में कामयाब रही है। उसकी टक्कर मुख्य रूप से समाजवादी पार्टी से हुई, दोनों छोटे दलों की यूपी की सियासत में शिरकत भाजपा व सपा की चिंताएं बढ़ाए तो हैरत नहीं।

सबसे पहले असद्दुदीन ओ‌वैसी की बात करें। भाजपा की ‘बी’ पार्टी होने के आरोपों के बीच उन्होंने ऐसे दल से गठबंधन किया है, जिसकी सक्रियता भारतीय जनता पार्टी को परेशान कर सकती है। खासतौर पर पूर्वांचल के जिलों में फैजाबाद से लेकर मिर्जापुर व गोरखपुर वाराणसी तक..। राजनीतिक विश्लेषक डा. एके वर्मा कहते हैं, ‘छोटे दल अक्सर बड़ी पार्टियों के लिए अतिरिक्त वोट बैंक सिद्ध होते रहे हैं। जैसा भाजपा के लिए ओम प्रकाश राजभर की पार्टी व अपना दल के साथ आने पर वर्ष 2017 में हुआ। भाजपा को अतिरिक्त वोट बैंक लाभ मिला और पार्टी ने 300 का आंकड़ा पार किया। ओवैसी के साथ राजभर पूर्वांचल में भाजपा के जातीय समीकरण को प्रभावित कर सकते हैं।’

कहना गलत न होगा कि उत्तर प्रदेश में अभी तक राजनीतिक दलों का कोई मोर्चा बड़े दलों को चुनौती देने की स्थिति में नहीं रहा है। हां, ओम प्रकाश राजभर वर्ष 2017 तक पूर्वांचल में मुख्तार अंसारी के कौमी एकता दल के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ते रहे। वह दो दर्जन से ज्यादा सीटों पर असरकारी वोट भी पाते रहे लेकिन उनकी पार्टी के चार विधायक पहली बार तब जीते जब उन्होंने भाजपा के साथ गठबंधन किया। ऐसे में असद्दुदीन ओवैसी के साथ जाने पर भाजपा को धार्मिक ध्रुवीकरण का मौका मिलने की उम्मीद जरूर है। फिर भी वक्त रहते भाजपा को न केवल अपने सहयोगी दलों को समेटे रखना होगा बल्कि राजभर जाति के वोट बैंक में सेंध लगाने की जुगत भी भिड़ानी होगी।

ओवैसी बढ़ा रहे सपा की चिंताएं
दूसरी ओर ओवैसी की आमद से सपा की पेशानी पर भी चिंताएं बढ़ना लाजिमी है। एक अध्ययन के अनुसार, सपा को यूपी में विधानसभा व लोकसभा चुनावों में 58 से 60 फीसदी मुस्लिम वोट मिलते रहे हैं। ऐसे में ओवैसी जातीय समीकरण के साथ मुस्लिम वोट बैंक में सेंध लगाएंगे, लिहाजा सपा को अपने किले को बचाकर रखना होगा। चाहे कांग्रेस हो या बसपा और आम आदमी पार्टी भी मुस्लिम वोटों को लुभाने के प्रयास में मौजूदा भाजपा सरकार पर वक्त-बेवक्त हमलावर रहती हैं। ऐसे में अगर मुस्लिम वोटों में बंटवारा हुआ तो सपा को नुकसान होने से इनकार नहीं  किया जा सकता। वैसे चाहे बिहार चुनाव रहे हों जहां ओवैसी ने पांच सीटें जीत कर राजद की राहें दुश्वार कीं तो वहीं पश्चिमी बंगाल में भी उनकी इंट्री ने त्रिमूल कांग्रेस की धड़कनें बढ़ा दी हैं। खासतौर पर उनकी सक्रियता से होने वाले ध्रवीकरण का लाभ भाजपा को न मिले, ममता बनर्जी को यही चिंता सताते नज़र आ रही है।

आप से भाजपा भी फिक्रमंद
कुछ ऐसी ही स्थिति चिंताएं आम आदमी पार्टी को लेकर भाजपा को भी सताए तो आश्चर्य नहीं। भाजपा ने आप की चुनाव लड़ने की घोषणा पर जैसी प्रतिक्रिया दी, उससे उसकी चिंताएं भी साफ झलक रही हैं। आप के मुखिया अरविंद केजरीवाल की कार्यशैली खासतौर पर सस्ती बिजली, राशन और मोहल्ला क्लीनिक जैसे मुद्दों और लोकलुभावनी घोषणाएं कर पार्टी शहरी गरीब-मध्यम वर्गीय मतदाताओं को आकर्षित करने का दांव खेल सकती है। भाजपा के लिए यह कार्यशैली चिंता का सबब हो सकती है।

राजनीतिक विश्लेषक पूर्व आईजी अरुण कुमार गुप्ता कहते हैं, ‘भाजपा सरकार ने जैसा कामकाज किया है और जातीय समीकरण बिठाने में अगर वह कामयाब रही और मुकाबला चौतरफा रहा तो उसे कोई दिक्कत होती नहीं दिख रही। उपचुनाव ने साफ कर दिया है कि त्रिकोणीय मुकाबले में लाभ भाजपा का ही होगा..। हां, सभी दल एक साथ एक मोर्चे के तहत लड़ें तो बात दीगर है..।’

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