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यूरो कप डायरी:मोराता और एमबाप्पे दो खिलाड़ी ही नहीं दो कहानी हैं, एक दुनियाभर के ताने सहकर हीरो बना, दूसरा अपना इगो मैनेज नहीं कर पा रहा

एक दिन में दो सनसनीख़ेज़ मुक़ाबले। दोनों में कुल 14 गोल दाग़े गए। दोनों में एक टीम ने पहले बढ़त ली, फिर दूसरी ने पलटवार करते हुए तीन गोल किए, जिसके जवाब में खेल ख़त्म होने से चंद मिनटों पहले दो गोल करके दोनों ही मैच में इक्वेलाइज़ किया गया, दोनों ही मुक़ाबले एक्स्ट्रा टाइम में गए। उनमें से एक तो पेनल्टी शूटआउट में गया, और टूर्नामेंट के पहले बड़े उलटफेर में विश्वविजेता फ्रान्स की टीम राउंड ऑफ़ 16 से ही बाहर हो गई, वहीं स्पेन और स्विट्ज़रलैंड की टीमों ने क्वार्टरफ़ाइनल में जगह बनाई।

लेकिन इन तमाम वारदातों के बीच, फ़ुटबॉल की दो कहानियाँ उभरकर सामने आईं, जो दिलचस्प हैं और इस खेल के बारे में बहुत कुछ बतलाती हैं। एक कहानी का नाम है अल्वारो मोराता, दूसरी का नाम है कीलियन एमबाप्पे। सबसे पहले एमबाप्पे पर एक मुख़्तसर-सी टिप्पणी।

कोई चारेक साल पहले मोनेको के लिए एक रोमांचक चैम्पियंस लीग सीज़न खेलकर एमबाप्पे सबकी नजर में आए थे। पेरिस सेंट जर्मेन ने उन्हें मुँहमाँगे दामों पर लिया और उन्होंने फ्रान्सीसी टीम में भी जगह पाई, जिसके लिए साल 2018 में विश्वकप जीता। दो साल के भीतर वो दुनिया के सबसे चर्चित युवा फ़ुटबॉलरों में शुमार हो गए और उनकी तुलना युवा पेले से की जाने लगी।

वे तेज़तर्रार थे और गेंद पर उनका नियंत्रण कमाल था। किंतु यूरो 2020 तक आते-आते उनकी चमक धूमिल पड़ने लगी थी। उनकी टीम पेरिस लगातार दूसरी बार चैम्पियंस लीग से नॉकआउट हुई और बीते सीज़न में तो लीग भी नहीं जीत सकी। एक अजीब तरह की हताशा, कुंठा, आहत अभिमान लेकर वे यूरो में आए और टीम के वरिष्ठ स्ट्राइकर ओलिवियर जिरू से ठान बैठे।

अख़बारों में लिखा जाने लगा कि फ्रान्स के कोच दीदीयर देषाँ के लिए एमबाप्पे के इगो का मैनेजमेंट करना कठिन साबित हो रहा है। इसकी परिणति सोमवार रात खेले गए मैच में दिखलाई दी, जिसमें वे ना केवल पूरे समय फीके नज़र आए, बल्कि उन्होंने निर्णायक पेनल्टी भी गँवाई, जिसने फ्रान्स को टूर्नामेंट से बाहर कर दिया। प्रतिभावान सितारों से सजी फ्रान्स की टीम केवल एमबाप्पे की वजह से नहीं हारी है, लेकिन इस प्रतिस्पर्धा के दौरान टीम में उनकी उपस्थिति बहुत सकारात्मक और उजली नहीं थी। ऐसा लगा जैसे फ्रान्स की टीम अंदरून तौर पर एक भीषण लयभंग से जूझ रही है।

स्पेन के सेंटर फ़ॉरवर्ड अल्वारो मोराता की कहानी इससे ठीक उलट है। जहाँ एमबाप्पे प्रशंसकों और समीक्षकों की आँख के तारे बने हुए थे, वहीं मोराता का उन्हीं के प्रशंसकों द्वारा मखौल उड़ाया जाता रहा। गोलपोस्ट के सामने एक स्ट्राइकर से जैसी दक्षता और अवसरवादिता की उम्मीद की जाती है, उस पर उन्हें खरा नहीं माना गया। सोशल मीडिया पर सीमाएँ लाँघी गईं। इंटरनेट-एब्यूज़ के कारण मोराता को बड़ी मनोव्यथा का सामना करना पड़ा। स्लोवेकिया के विरुद्ध मैच में वे पेनल्टी चूक गए थे और ग़ुस्साए फ़ैन्स और ट्रोल्स उन्हें और उनके परिवार को भला-बुरा कहने से बाज़ नहीं आए।

लेकिन सोमवार रात खेले गए नॉकआउट मुक़ाबले में जब स्पेन ने क्रोएशिया को 5-3 से हराया तो एक्स्ट्रा टाइम में निर्णायक गोल अल्वारो मोराता ने ही किया। ये एक उम्दा स्ट्राइकर का गोल था और नब्बे से ज़्यादा मिनट खेलने के बावजूद इस गोल में उनका टच पारदर्शी और श्लाघनीय नज़र आया।

राइट फ़्लैन्क से दानीएल ओल्मो के इंच-परफ़ेक्ट क्रॉस को मोराता ने सीधे पैर से सधे हुए फ़र्स्ट टच के साथ सम्हाला और बाएँ पैर के निष्णात स्पर्श से गेंद को गोलचौकी के हवाले कर दिया। फ़ुटबॉल में एक अच्छा खिलाड़ी अपने फ़र्स्ट टच से पहचाना जाता है, जैसे कि एक अच्छे लेखक की पहचान उसके वाक्यों के सुगठित विन्यास से होती है या एक सितारवादक या गायक अपने कोमल स्वराघात से जाना जाता है। अगर आप पारखी हैं तो एक निमिष में बता सकते हैं कि किस हुनरमंद में कितना पानी है।

मोराता के इस प्रदर्शन ने उन्हें देश-विदेश में अनेक फ़ुटबॉलप्रेमियों का चहेता बना दिया होगा। उन्हें ट्रोल और एब्यूज़ करने वाले नामाक़ूलों के लिए आज मुँह छिपाने की कोई जगह नहीं होगी। मोराता कोई एक दशक से खेल रहे हैं और अभी तक छह क्लब बदल चुके हैं। एमबाप्पे का अनुभव उनकी तुलना में अभी आधा ही है। मोराता जैसी विफलता का स्वाद एमबाप्पे ने इससे पहले नहीं चखा था, लेकिन अब चख लिया है। सोमवार को यूरो-कप के इन दोनों मैच में ये दो खिलाड़ी एक दोराहे पर मिले थे- मोराता हार से जीत की ओर चल रहे थे, एमबाप्पे जीत से हार की ओर। ये दोराहा उनकी शख़्सियत में कितनी और कैसी गलियाँ, कूचे, चौरस्ते रचेगा- यह तो आने वाला समय ही बतलाएगा।

स्पेन-क्रोएशिया मैच की एक दूसरी अंतर्कथा स्पेन के गोलची उनाई सिमॅन से जुड़ी है, जिनकी भयंकर भूल से स्पेन ने पहले हाफ़ में ख़ुद को एक गोल से पीछे पाया था। इतने बड़े टूर्नामेंट में इस स्तर की ग़लती किसी भी खिलाड़ी का मनोबल तोड़ सकती थी, लेकिन उनाई सिमॅन ने हौंसला बनाए रखा और इसके बाद खेल में दो-तीन कुछ बहुत उम्दा गोल बचाए।

अंतिम निष्कर्ष में उनकी यह दृढ़ता निर्णायक सिद्ध हुई। एक तीसरी अंतर्कथा स्वयं स्पेन के कोच लुई एनरीके की है, जिन्होंने कुछ समय पूर्व एक मर्मान्तक पारिवारिक त्रासदी का सामना किया था। जब वे बार्सीलोना के कोच थे, तब उनकी निगहबानी में बहुत कैऑटिक क़िस्म के मैच हुआ करते थे, जिनमें गोलों की भरमार होती। लुई अपनी टीमों से अटैकिंग फ़ुटबॉल खिलवाते हैं। हाई-प्रेस में रक्षापंक्ति में जगहें छूट जाती हैं, जो विरोधी टीम के फ़ॉरवर्ड्स को ललचाती हैं। नतीजा यह रहता है कि तेज़ गति के बॉक्स-टु-बॉक्स गेम होते हैं और दर्शकों को दम साधने का मौक़ा नहीं मिलता। सोमवार को खेला गया मैच भी एक टिपिकल “लुई एनरीके स्पेक्टेकल” था। अपनी यूरो स्क्वाड में रीयल मैड्रिड के एक भी खिलाड़ी को शामिल नहीं करके लुई एनरीके स्पेन की राजधानी में आलोचना के शिकार हुए हैं, लेकिन स्पेन को क्वार्टरफ़ाइनल में ले जाकर उन्होंने इस टीम में नए जान फूँक दी है।

विश्वविजेता फ्रान्स के लिए इस टूर्नामेंट की उपलब्धि कह लीजिये- पॉल पोग्बा का संगीत की लय जैसा मिडफ़ील्ड-खेल और आक्रमण-पंक्ति में करीम बेन्ज़ेमा की शऊर से भरी करामात। यूरो कप में हार से दुनिया ख़त्म नहीं हो जाती, उम्मीद की जानी चाहिए यह प्रतिभाशाली टीम अगले साल होने जा रहे विश्वकप के लिए बेहतर तैयारी के साथ आएगी और व्यक्ति-प्रबंधन वाले संकटों को वह तब तक बेहतर तरीक़े से सुलझा लेगी। ऐसी टीमों का टूर्नामेंट के आख़िरी दौर तक जाना फ़ुटबॉल के लिए बहुत ज़रूरी होता है।

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