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जिंदगी से मायूस होते लोग

तमाम कोशिशों के बावजूद खुदकुशी की प्रवृत्ति पर काबू नहीं पाया जा पा रहा है। आत्महत्या करने वालों में किशोर, युवा, ढलती उम्र के लोग तक शामिल हैं। इसके पीछे कारोबार में विफलता, मानसिक अवसाद, प्रेम में विफलता, घरेलू कलह, गरीबी, कर्ज का चक्र आदि कई वजहें बताई जाती हैं। पर गहरी पड़ताल करने पर इन प्रत्यक्ष कारणों के अलावा कई अन्य परोक्ष कारण भी दिखाई पड़ते हैं। पर कारण कोई भी हो, जिंदगी से बड़ी और महत्त्वपूर्ण तो कोई चीज नहीं हो सकती। मगर रोजमर्रा की मुश्किलों और जद्दोजहद को लेकर जीवन की अंगुली ही छोड़ देना, किन मानसिक, सामाजिक और पारिवारिक दुरूहताओं का परिणाम है? यह प्रश्न विचारणीय है। भारत में आत्महत्या करने वालों की संख्या हत्या में जान गंवाने वालों से पांच गुना अधिक है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2019 में 1.39 लाख लोगों ने आत्महत्या कर ली। इसमें सड़सठ फीसद अठारह से पैंतालीस साल की उम्र के बीच के लोग थे। आत्महत्या करने वालों में पढ़े-लिखे लोगों की संख्या भी लगातार बढ़ रही है। रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्ष 2019 में हर चार मिनट में किसी न किसी व्यक्ति ने मौत को गले लगा लिया। जीवन सबको प्रिय होता है। व्यक्तिवादी होते इस दौर में तो स्वयं के प्रति मुग्धता और बढ़ी है। खुद के विकास, पहचान, महत्त्व के प्रति लोग पहले से ज्यादा जागरूक हुए हैं। समान्यतया लोग आज सबसे ज्यादा खुद की चिंता करते हैं, उसके बाद किसी और की। खासकर युवा अपने रहन-सहन, पहनावे आदि पर ज्यादा ध्यान देने लगे हैं। ‘मैं’, ‘मेरी पहचान’, ‘मेरी मर्जी’ जैसे शब्द लगातार अहम होते जा रहे हैं। शायद इसी आत्ममुग्धता में आत्महत्या का बीज भी छिपा है। स्वयं के विकास की लगातार बढ़ती भूख में जहां ‘मैं’ का भाव बढ़ा है, वहीं लोगों को परिवार और सामाजिकता से दूर भी किया है। इससे व्यक्ति में अकेलापन बढ़ा है। वह अपनी समस्याएं किसी से साझा करने में कतराने लगा है। या फिर उसकी नजर में ऐसा कोई होता ही नहीं, जिससे वह अपने दिल की बात कह सके। इससे हताशा बढ़ी है और आत्महत्या की दर भी। छोटे-बड़े शहरों, गांवों, घरों, कार्यस्थलों के साथ-साथ आइआइटी, आइआइएम जैसे उच्च शिक्षण संस्थानों में छात्रों में बढ़ती आत्महत्या की प्रवृति इसी ओर इशारा करती है। खुदकुशी रोकने के लिए अनेक नियम-कानून, संस्थाएं आदि तो प्रयासरत हैं, पर इस दिशा में कामयाबी नहीं मिल पा रही।  इस प्रवृत्ति को रोकने में सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका परिवार की है, क्योंकि ज्यादातर मामलों में इसका बीज यहीं पर पड़ता है। विकास, पैसा, पद, प्रतिष्ठा की अनंत चाहतें इंसान यहीं से पालना सीखता है। आवश्यकतानुसार सब जरूरी तो है, पर जीवन से बढ़ कर कुछ भी नहीं। यह बात उसे बताना और दिखावे से दूर सहज, सामान्य जीवन जीने की कला सिखाना परिवार का ही कर्तव्य है। सबसे बड़ी बात, सच्ची खुशी हासिल करना है। बाजारवाद की फितरत को जानना भी बहुत जरूरी है। आत्महत्या की प्रवृत्ति को रोकने में केंद्र और राज्य सरकारों को जमीनी पहल करना होगा। महज हेल्पलाइन जारी करने और कुछ प्रचार के जरिए इसे नहीं रोका जा सकता। नियम-कानून बनाने के साथ-साथ उन्हें सही तरीके से लागू करना आवश्यक है। सभी छोटे-बड़े अस्पतालों, शिक्षण संस्थानों और अन्य आवश्यक स्थलों पर मानसिक चिकित्सकों की कारगर नियुक्ति आवश्यक है।

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