Wed. May 15th, 2024

बापू की पत्रकारिता के सिद्धांत

अहिंसा के पथ-प्रदर्शक, सत्यनिष्ठ, समाज सुधारक और महात्मा के रूप में विश्वविख्यात बापू सबसे पहले सफल पत्रकार थे। बापू की पत्रकारिता भी उनके गांधीवादी सिद्धांतों की मानिंद है। बापू का स्पष्ट मानना था, पत्रकारिता की बुनियाद सत्यवादिता के मूल में निहित होती है। असत्य की तरफ उन्मुख होकर पत्रकारिता के उद्देश्यों को कभी प्राप्त नहीं किया जा सकता है। बापू का यह दृष्टिकोण इस बात की पुष्टि करता है, उनकी पत्रकारिता और व्यावहारिक जीवन के सिद्धांतों में किसी तरह का दोहरापन नहीं रहा है। सवाल यह है, क्या आज की वैश्विक पत्रकारिता इन मापदंडों पर खरी उतर रही है। पत्रकारिता में बापू के योगदान की ऐतिहासिकता पर नजर डालें तो उनकी पत्रकारिता का श्रीगणेश ही विरोध की निज अभिव्यक्ति से हुआ था। दक्षिण अफ्रीका में अखबार को लिखे पत्र को बापू की पत्रकारिता का पहला कदम माना जा सकता है। बापू की प्रखर लेखन का लोहा मानते हुए एक अंग्रेजी के लेखक ने तो यहां तक कहा, गांधी के संपादकीय लेखों के वाक्य – थॉट ऑफ द डे के तौर पर इस्तेमाल किए जा सकते हैं। ऐसी थी, बापू की लेखनी की ताकत। यह बापू की पत्रकारिता के अद्वितीय उदाहरण है। बापू की पत्रकारिता डगर में भाषाई दायरे कभी अवरोध नहीं बने। वह समय और अवसर के अनुकूल हिंदी / ऊर्दू / अंग्रेजी / गुजराती में लेखन कर लिया करते थे। दाएं हाथ से हिंदी / ऊर्दू लिखने वाले बापू बाएं हाथ से शानदार अंग्रेजी लिखते थे। सवाल यह है, हममें से कितने बापू की इन विशेषताओं का अनुसरण कर रहे हैं ?
बापू की नजर में पत्रकारिता का मकसद जन जागरण था। वह जनमानस की समस्याओं को मुख्यधारा की पत्रकारिता में रखने के प्रबल पक्षधर थे । दक्षिण अफ्रीका से भारत आने के बाद गुलामी की परिस्थितियों से प्रबल बापू ने सत्य, अहिंसा के समानांतर पत्रकारिता और लेखनी को भी अपना हथियार बनाया। द इंडियन ओपिनियन, नवजीवन, यंग इंडिया, हरिजन में विचारों से ओत- प्रोत हजारों लेख लिखे। इनमें बापू के मूल्य, आदर्श, सिद्धांत साफ-साफ परिलक्षित होते हैं। बापू का साफ मानना रहा, पत्रकारिता का पहला उद्देश्य जनता की इच्छाओं और विचारों को अपनाना और उन्हें व्यक्त करना है। दूसरा उद्देश्य जनता में वांछनीय भावनाओं को जागृत करना और तीसरा उद्देश्य सार्वजनिक दोषों को निर्भीकता पूर्वक प्रकट करना है। वह मानते रहे, ज्ञान और विचारों को समीक्षात्मक टिप्पणियों के साथ शब्द, ध्वनि और चित्रों के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाना ही पत्रकारिता है। प्रश्न यह है, क्या हम बापू के सपनों की पत्रकारिता को सच में अमली जामा पहना रहे हैं या नहीं? बापू पत्रकारिता को दो रूपों में विभाजित करते हैं- एक व्यावहारिक पत्रकारिता और दूसरी लोकसेवी । बापू की साफ मान्यता थी, पत्रकारिता को व्यवसाय बनाने से वह दूषित हो जाती है और लोकसेवा के लक्ष्य से भटक जाती है। बापू समाचार पत्रों की शक्ति सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रभावों में पहचानते थे। उन्होंने अपनी आत्मकथा – सत्य के साथ मेरे प्रयोग में लिखा है- समाचार पत्र सेवाभाव से ही चलने चाहिए। समाचार पत्र एक जबर्दस्त शक्ति है, किन्तु जिस प्रकार निरंकुश पानी का प्रवाह गांव के गांव डुबो देता है, उसी प्रकार प्रलय का निरंकुश प्रवाह भी नाश करता है। यदि अंकुश कहर से आता है तो वह निरंकुशता से भी विषैला होता है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *