पुलिस के हाथों धक्के खाते पहाड़ी पत्रकार और मौज में बेख़ौफ़ खाकी
देहरादून में रावण दहन के पहले पत्रकारों की इज्जत की लंका एक दारोगा ने फूंक डाली.पत्रकारों का हुजूम मौके पर था.एक की भी हिम्मत नहीं हुई कि सामने आ के ऐतराज करें कि पुलिस ऐसा कैसे कर सकती है!अपना फर्ज और रिपोर्टिंग कर रहे पत्रकार को बावर्दी 2 सितारे वाला भगवान राम के पात्र के हाथों रावण के पुतले का दहन देखने आए हजारों लोगों के सामने धक्के मारते हुए खदेड़ता रहा.मौके पर अधिकांश वे पत्रकार थे,जिनको उतने साल भी पत्रकारिता में नहीं हुए थे, जिनको गिनने के लिए एक हाथ की अंगुली की भी पूरी दरकार हो.उनकी सिट्टी-बिट्टी गुम होना स्वाभाविक था.देश के बड़े और नामी दैनिक अखबार `हिंदुस्तान’ के Crime Reporter और कई साल पत्रकारिता में लगा चुके ओम सती का जब पुलिस ये हाल कर सकती है तो उनके जैसे छोटे-नए नवेले पत्रकारों की बिसात ही क्या! उत्तराखंड पत्रकार यूनियन ने बाद में दबाव बनाया और DGP अशोक कुमार की हिदायत पर SSP अजय सिंह ने उस कथित SI को Suspend किया.पत्रकारों का इससे अहं भले कुछ शांत हो जाए लेकिन मुअत्तली से भला एक दारोगा का बिगड़ना भी क्या.कुछ दिन बाद वह फिर Duty पर दिखाई देगा.मुअत्तली कोई सजा नहीं है.
ऐसा नहीं है कि पहले या फिर UP के दौर में पुलिस ऐसा नहीं करती थी.फर्क तब ये होता था कि जब ऐसा कुछ होता था तो पत्रकार इस कदर फ़ौरन एकजुट होते थे कि पुलिस के लिए फिर न निगलते न उगलते बनता था.अव्वल तो वे पत्रकारों का सम्मान करते थे.या फिर उलझने से बचते ही थे.ये उस UP पुलिस की बात कर रहा हूँ जो देश भर में अपनी हरकतों और कार्यशैली के लिए सुर्ख़ियों में रहती है.तब पत्रकारों में गजब की एकता हुआ करती थी.किसी दैनिक-साप्ताहिक-मासिक पत्रिका के पत्रकार से कुछ भी गलत या अपमानजनक बर्ताव होता था तो सारे पत्रकार एक होने में पल भर की देरी नहीं लगाते थे.ऐसे मामलों में घंटाघर पर धरना देने वालों में खुद मैं भी शामिल रहा हूँ.आज उस दौर के 90 फ़ीसदी पत्रकार या तो सक्रिय पत्रकारिता से नाता तोड़ चुके हैं या फिर दुनिया से ही विदा हो गए हैं.
तब के कई पत्रकार आज भी शिद्दत से रिपोर्टिंग या फिर डेस्क में आँख फोड़ रहे.दिमाग खपा रहे.कुछ के पास अपना मकान और चार पहिया गाड़ी आ गई है लेकिन इनमें से 95 फ़ीसदी को आज भी दुपहिया खटारा गाड़ी में फर्ज को अंजाम देते देखा जा सकता है.उनका बर्ताव नेताओं और पुलिस-बाकी अफसरों के साथ बहुत अच्छा मिलेगा.फाकाकशी या फिर ग़ुरबत के बावजूद उनके भीतर आत्मसम्मान छिपा हुआ है.उनको धंधा और दलाली से वास्ता नहीं रहता.बहुत हुआ अपने किसी जान-पहचान वालों के लिए या फिर परिवार से जुड़े किसी सदस्य के किसी समस्या को ले के कभी-कभी मंत्री या अफसर से गुजारिश कर लेंगे.इसमें मुझे कुछ गलत भी नहीं लगता.3 दशक से अधिक का वक्त गुजारने के बावजूद उनकी ये दशा है.इनमें भी 90 फ़ीसदी वे हैं, जो न सिर्फ पहाड़ी मूल के हैं बल्कि पत्रकारिता की मशाल को जिन्दा रखने की कोशिश कर रहे.उत्तराखंड आन्दोलन में पत्रकारिता के दौरान जिंदगी दांव पर लगाने से भी वे नहीं चूके.पुलिस की लाठियां खाईं-गफलत में आन्दोलनकारियों के पेट्रोल बम के हमले झेले.PAC की गोलियों की बारिश के बावजूद बेधड़क स्पॉट रिपोर्टिंग से कभी नहीं हिचके.
इन सभी में जो भी जीवित हैं और पत्रकारिता कर रहे या अपनी स्वतंत्र पत्रकारिता का लुत्फ़ ले रहे, को मैं निजी तौर पर जानता हूँ.साथ ही उनको भी जो उत्तराखंड राज्य के गठन के बाद अन्य राज्यों से इस पवित्र देवभूमि में पत्रकारिता के नाम पर आए.फिर पहले कदम जमाए और जल्द ही यहाँ पत्रकारों के स्वयंभू मसीहा बन बैठे.उनको कोई मठाधीश कहते हैं तो कोई गैंग का सरदार.उनको जो भी उपमा दी जाए लेकिन हकीकत ये है कि बहुत सीमित पत्रकारीय गुणों के बावजूद उनके पास आज अनगिनत महंगे भूखंड देहरादून में अलग-अलग स्थानों पर हैं.गाड़ियाँ बदलते रहते हैं.बच्चे शानदार स्कूलों में पढ़ते हैं.अफसरों और मंत्रियों को रसूख में लिए हुए हैं या फिर समूह में चल के उनको किसी न किसी तरह काबू में करने की कोशिश करते देखा जा सकता है.सीधे-सपाट लफ्जों में कहें तो वे ही आज के असली पत्रकार हैं.उनकी ठसक देखें तो ऐसा इल्म होगा मानो पहाड़ के पत्रकार उनके लिए चींटियाँ हैं.सूचना विभाग भी उनके आगे लोटता दिखता है.उनकी मर्जी से लाखों-करोड़ों के विज्ञापन और Video फ़िल्में उनके चेलों को दी जाती हैं.बाकियों को 10 हजार रूपये के विज्ञापन भी भीख की तरह बामुश्किल दिए जाते हैं.
चंद सालों की कथित पत्रकारिता और नौकरियों के लिए धक्के खाने के बावजूद ऐसी विलासिता चंद कथित नामी गिरामी पत्रकारों की जिंदगी का हिस्सा बन चुकी है.बड़े अख़बारों में कंप्यूटर के की बोर्ड को पीटने और रात-दिन तनाव में दौड़ने के बावजूद श्रमजीवी पत्रकार ओम सती की तरह पुलिस के हाथों धक्के खा के लज्जित होने को मजबूर हैं.ये पत्रकारों की भी कमी है जो आज पुलिस इस कदर उच्छृंखल है.वे अगर किसी भी एक वास्तविक पत्रकार के साथ किसी भी किस्म का हमला शारीरिक या आजकल के हिसाब से Virtually हो तो डट के खड़े हो गए होते तो किसी दारोगा तो छोड़ो बड़ी-बड़ी कुर्सियों पर सजे-संवरे बैठे रहने वालों का भी दुस्साहस उनकी तरफ गलत ढंग से देखने तक का न हो.अब भी जाग जाएं तो ठीक रहेगा.और देर करेंगे तो पहाड़ के पत्रकार जमींदोज होते देर नहीं होंगे. अभी सिर्फ कोर्निश ही किया है और ये हाल हो गया है.
ये नहीं भूलना चाहिए कि कई बाहर से आए पत्रकार बेहद अच्छे और सलीकेदार हैं.बस वे अँगुलियों में गिने जा सकते हैं.शायद उनके खांटी पत्रकार होने से ही उनकी दशा भी पहाड़ के मूल पत्रकारों से जुदा नहीं है.कुछ हर्फ़ पुलिस पर भी खर्च करना गैर वाजिब नहीं होगा.सारी उत्तराखंड पुलिस को खारिज करना ठीक नहीं लेकिन निजी अनुभव बहुत ही खराब हैं.सुनी-सुनाई नहीं बल्कि खुद से जुड़े दो अनुभव बांटना चाहूँगा.एक महिला ने अपने बेटे के मोबाइल पर किसी ड्रग पैडलर के सन्देश को मुझे भेजते हुए कहा कि ये बेटे को लगातार संपर्क करने की कोशिश करते हुए ड्रग्स लेने के लिए बुला रहा है.मैंने पुलिस के दो बेहद बड़े और अहम ओहदों पर बैठे अफसरों को ये सन्देश मय ड्रैग पैडलर के नंबर और उसकी तस्वीर के भेज दिया और कार्रवाई की उम्मीद जताई.SoG वाले कुछ देर बाद Local पुलिस थाने में थे.थाने वालों से वे ड्रैग पैडलर के बारे में जानकारी मांग रहे थे या क्या कह रहे थे, मालूम नहीं.
हकीकत ये है कि जिस ड्रैग पैडलर के घर उसी दिन छापा मारा जाता या फिर स्थानीय थाने को भनक न लगने दी जाती तो वह ड्रैग पैडलर अब तक सुबूतों के साथ दबोचा जा चुका होता.कई माँ-बाप और नशे के आदि लोगों के घर वाले चैन से रहते.ये किस से छिपा है कि थाने और वहां के जरायमपेशाओं में किस कदर गहरे रिश्ते हुआ करते हैं.मेरी जानकारी के मुताबिक वह पैडलर लेकिन अपना धंधा अब भी कर रहा.पता नहीं वह SoG थाने से ही लौट गई या फिर उसने भी अपना हफ्ता उससे बंधवा लिया.दो दिन पहले ही अपने गाँव का एक शख्स मिला.पैसा होने के बावजूद बदहाल सा था.उसने बताया कि पिछली दिसंबर में ही उसके जवान बेटे की ड्रग्स के ओवरडोज़ के चलते मौत हो गई.एक और नौजवान जिसको मैं बचपन से जानता था, ने नशे में ही फांसी लगा के जिंदगी ख़त्म कर ली.
मेरी ही रिहाइश वाले इलाके डाकरा कैंट में ऐसे तमाम युवाओं को मैं जानता था, जिन्होंने नशे में ही ख़ुदकुशी कर लिए या फिर अपनी जिंदगी तबाह कर ली.इनमें लड़कियां भी थीं.ये तब हो रहा जब CM पुष्कर सिंह धामी बार-बार अपना इरादा साफ़ कर रहे कि दो साल के भीतर उत्तराखंड को Drugs-Free करना है.मुझे एक ने बताया कि डाकरा में एक ड्रग पैडलर को खुद पुलिस वाले सामान ला के बेचने देते हैं.मुझे पता नहीं कि इसमें सच कितना है या झूठ कितना, लेकिन ये सच है तो फिर भगवान ही मालिक है.मेरे बड़े भाई मेख गुरुंग कारगिल युद्ध में शहीद हुए थे.CM आवास जहाँ से शुरू होता है और राजभवन होते हुए जो सड़क दिलाराम चौक पर राजपुर रोड पहुँच के ख़त्म होती है, वह उनके नाम पर ही है.दोनों छोर पर उनके नाम की शिला पट्ट है.उनकी शहादत के बाद हरिद्वार बाईपास रोड पर मिले पेट्रोल पम्प पर भाभी और मेरा छोटा भाई बैठता है.
कुछ दिन पहले मुझे शाम को भाई का फोन आया कि 7-8 लड़कों ने पेट्रोल पम्प के कर्मचारियों पर बल्लम-नुकीले औजारों और सरियों से जानलेवा हमला कर के कईयों को लहू-लुहान कर दिया.चीता और पुलिस को फोन कर दिया है लेकिन वे अभी तक नहीं पहुंचे हैं.मैंने तत्काल फिर DGP अशोक कुमार और SSP अजय सिंह को फोन कर हमले के बाबत जानकारी दी.उन्होंने रेडियो सेट पर मुझसे फोन पर बात करते-करते ही पुलिस को कार्रवाई की हिदायत दी.मैं भी पेट्रोल पम्प पहुंचा.वहां दफ्तर से ले के पम्प तक खून ही खून था.CCTV पर हमले की एक-एक हरकत रिकॉर्ड थी.चीता जवान मेरे से पहले पहुँच के Visuals देख रहे थे.अगले दिन एक हमलावर हिरासत में लिया गया.FIR के लिए तहरीर दे दी गई थी.इसके बावजूद एक भी हमलावर जानलेवा हमले के मामले में न तो गिरफ्तार हुआ न ही तहरीर पर FIR हुई.हमलों के शिकार दोनों कर्मचारी अस्पताल में ईलाज करा रहे थे.
मुझे ताज्जुब नहीं हुआ कि पुलिस ने दबाव डाल के दोनों पक्षों में समझौता करा दिया.पूरे 3 दिन बाद.कानून और व्यवस्था का नंगा नाच होने और पुलिस के इतने बड़े अफसरों की जानकारी में मामला होने के बावजूद नतीजा सिफर निकला.मुझे एक घायल कर्मचारी के भाई और एक कर्मचारी ने बताया कि पुलिस ने धमकाया था कि अगर समझौता नहीं होता है तो फिर हमलावरों की तरफ से भी FIR लिखी जाएगी.परेशान हो जाओगे.ऐसी मिसाल कहीं देखी है? ये मिसालें उत्तराखंड पुलिस पर बदनुमा दाग हैं.ऐसे पुलिस वालों पर फ़ौरन कार्रवाई होती तो पत्रकार सती से ऐसी बदतमीजी करने का दम किसी दारोगा में नहीं होता.