38 दिन, 12 मौतें, क्यों कमजोर पड़ रहा किसान आंदोलन राजनीति के चक्कर में फूट पड़ी, अलग-अलग प्रोटेस्ट कर रहे
पंजाब-हरियाणा के शंभू बॉर्डर पर चल रहे किसान आंदोलन को 38 दिन बीत गए हैं। MSP पर गारंटी की मांग कर रहे किसान शंभू बॉर्डर के अलावा खनौरी बॉर्डर पर डटे हैं। कई बार दिल्ली जाने की कोशिश की, लेकिन पुलिस ने आगे नहीं बढ़ने दिया। आंदोलन के दौरान 9 किसानों समेत 12 लोगों की मौत हुई है। सरकार के साथ चार दौर की बातचीत भी बेनतीजा रही।
किसानों का विरोध हल्का पड़ता देख दिल्ली पुलिस ने दिल्ली बॉर्डर से बैरिकेड्स हटाने शुरू कर दिए हैं। बुधवार को दिल्ली-गाजीपुर बॉर्डर पर लगाए गए सीमेंटेड बैरिकेड्स हटा दिए गए।
13 फरवरी को शुरू हुए इस आंदोलन को किसान नेता सरवन सिंह पंढेर और जगजीत सिंह डल्लेवाल लीड कर रहे हैं। अगुआई संयुक्त किसान मोर्चा (नॉन-पॉलिटिकल) कर रहा है। ऐसा ही किसान आंदोलन 2021 में हुआ था। तब किसान दिल्ली की सिंघु और टीकरी बॉर्डर पर डटे थे। इसकी चर्चा विदेशों में हुई थी।
तब आंदोलन की बागडोर संयुक्त किसान मोर्चा, यानी SKM के हाथ में थी। किसान नेता गुरनाम सिंह चढूनी, राकेश टिकैत और बलबीर सिंह राजेवाल आंदोलन के चेहरे थे। तीनों नेता इस बार के आंदोलन से दूर ही रहे।
अब आंदोलन को लेकर 3 सवाल हैं
1. इस बार किसान आंदोलन पिछली बार जैसा जोर क्यों नहीं पकड़ पाया?
2. पिछले आंदोलन में शामिल रहे बड़े किसान नेता इस बार क्यों गायब रहे?
3. संयुक्त किसान मोर्चा दो धड़ों में क्यों बंट गया?
इन सवालों के जवाब जानने दैनिक भास्कर दिल्ली में शंभू और खनौरी बॉर्डर पर पहुंचा। संयुक्त किसान मोर्चा और संयुक्त किसान मोर्चा (नॉन-पॉलिटिकल) के नेताओं से बात की।
किसान आंदोलन की जरूरत क्यों पड़ी
2021 में केंद्र के बनाए तीन कृषि कानून वापस लेने की मांग के साथ किसानों ने आंदोलन शुरू किया था। किसान फसलों की MSP पर भी गारंटी चाहते थे। कानून वापस लेने पर तो सहमति बन गई, लेकिन MSP पर गारंटी नहीं मिली। इसके अलावा स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू करना, किसानों और खेत मजदूरों के लिए पेंशन और कर्ज माफी जैसी मांगे भी पूरी नहीं हुई हैं।
यही मांगें मनवाने के लिए किसानों ने फरवरी, 2024 में फिर से आंदोलन शुरू किया। इससे जुड़े किसान नेता अमरजीत सिंह मोहरी बताते हैं, ‘पिछले दो साल में सरकार ने किसान नेताओं के साथ कोई मीटिंग नहीं की। हमने 26 और 27 नवंबर, 2023 को सभी राज्यों की राजधानियों में आंदोलन किया, लेकिन सरकार ने ध्यान नहीं दिया।’
‘हमें समझ आ गया कि आंदोलन के बिना सरकार नहीं जागेगी। इसलिए जत्थेबंदियों ने फैसला लिया कि हम आंदोलन करेंगे।’
आंदोलन का नेतृत्व कर रहे SKM नॉन-पॉलिटिकल के साथ 250 जत्थेबंदियां
अमरजीत सिंह मोहरी बताते हैं, ‘2021 में किसान आंदोलन की जीत के बाद संयुक्त किसान मोर्चा से कुछ संगठन अलग हो गए थे। उनमें से एक SKM नॉन-पॉलिटिकल भी था। इस मोर्चे के किसान नेता पंजाब चुनाव में नहीं गए थे। इसमें भारत की 100 जत्थेबंदियां शामिल हैं।’
‘जगजीत सिंह डल्लेवाल ने SKM (नॉन-पॉलिटिकल) बनाया था। उन्हें हरियाणा, राजस्थान और मध्य प्रदेश के किसान संगठनों का साथ मिला। बाद में सरवन सिंह पंढेर 18 संगठनों का दल लेकर आए। इसे किसान मजदूर संघर्ष समिति कहा गया। बाद में वो भी SKM (नॉन-पॉलिटिकल) का हिस्सा बन गए। दोनों संगठनों को मिलाकर अब 250 के करीब जत्थेबंदियां हैं।’
वहीं, आंदोलन में शामिल भारतीय किसान मजदूर यूनियन (पंजाब) के अध्यक्ष मंजीत सिंह कुछ और ही बताते हैं। वे अपनी जत्थेबंदी के साथ शंभू बॉर्डर पर बैठे हैं।
मंजीत कहते हैं, ‘लीडर्स को खुद सोचना चाहिए कि वे इस आंदोलन को खराब न करें। आंदोलन से अलग जा रहे नेताओं ने ही पिछले आंदोलन की अगुआई की थी। इन दो सालों में वो मांगे पूरी नहीं करा पाए। अब अलग मोर्चा खड़ा हो गया है, तो उसका समर्थन नहीं कर रहे। आज वे अलग-अलग बयान देकर मोर्चे को खराब करना चाहते हैं।’
वे आगे बताते हैं, ‘हर संगठन का विरोध करने का अपना तरीका होता है। किसान नेता उग्राहां ज्यादातर छोटे किसानों के साथ काम करते हैं। राजेवाल और चढूनी बड़े किसानों के साथ काम करते हैं।’
‘राष्ट्रीय स्तर पर डल्लेवाल का संगठन राष्ट्रीय किसान मजदूर महासंघ के साथ है। इसके नेता शिव कुमार कक्का हैं। कुछ साल पहले कक्काजी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े भारतीय किसान संघ से जुड़े थे। उन्होंने रास्ता बदल लिया और नया संगठन राष्ट्रीय किसान मजदूर महासंघ बना लिया। अभिमन्यु डल्लेवाल और शिव कुमार कक्का अभी चल रहे आंदोलन का हिस्सा हैं।’
SKM की आगे की रणनीति पर वे बताते हैं, ‘BKU उग्राहां और BKU चढूनी जैसे बड़े किसान संगठन रोज धरना, प्रदर्शन और रेल रोको अभियान चला रहे हैं। इनका मकसद किसान आंदोलन को समर्थन देना नहीं है। इनके गुट के लोग आंदोलन में शंभू और खनौरी बॉर्डर न पहुंच पाएं, इसलिए ये कार्यक्रम करवाए जा रहे हैं। उम्मीद की जा सकती है कि SKM और SKM (नॉन-पॉलिटिकल) फिर से एक हो जाएं।’