क्या मोदी की बीजेपी अब संघ को और बर्दाश्त नहीं करना चाहती ?
संघ और भाजपा एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं ये एक बड़ा सच है। संघ के तीन सौ से अधिक अनुषंगी संगठनों में से भाजपा एक है। संघ की बदौलत ही मोदी राष्ट्रीय नेतृत्व में आए। याद करिए गोवा भाजपा सम्मेलन जहां संघ ने मोदी को प्रधानमंत्री के चेहरे के रुप में प्रोजेक्ट किया उन्हें गुजरात नरसंहार का यह एक बड़ा पुरस्कार जैसा था। संयोग से 2014 में पहली दफा लफ़्फ़ाजोंं की सरकार बन गई। संघ के तीन एजेंडों राममंदिर, कश्मीर में धारा-370 की समाप्ति और हिंदू राष्ट्र निर्माण पर मोदी सरकार ने खुलकर काम किया। मनुवादी संविधान की तैयारी भी पूर्णता की ओर है। फिर आखिरकार संघ भाजपा से नाराज़ क्यों नज़र आ रहा है?
मोहन भागवत कहते हैं संघ का कार्यकर्ता अपने वोट का इस्तेमाल स्वतंत्र रुप से कर सकता है। वे हिंदू- मुसलमान का डीएनए एक बता चुके हैं। कभी आरक्षण के खिलाफ हो जाते हैं तो कभी पक्षधर। ऐसा ही आचरण मोदीजी करते हैं क्षेत्र विशेष में उनके मुताबिक बात पर जोर देते हैं। इन दोनों का कोई नीतिगत सिद्धांत नहीं है। दोनों नाग नाथ और सांप नाथ की तरह हैं। कब किसको डस लें कह नहीं सकते। पिछले सालों से मोदी और भागवत के बीच सम्बंधों में गहरी दरार दिखाई देने लगी है। उसमें नितिन गडकरी की उपेक्षा से दूरी के तार जुड़ते हैं। शिवराज और मनोहर लाल खट्टर का हटाया जाना भी इसी कड़ी का हिस्सा है। ये फैसले मोदी-शाह के ऐसे फैसले हैं जिन्होंने इस झमेले को विस्तार दिया है।
पिछले दिनों भाजपा अध्यक्ष जे पी नड्डा का बयान इस बात की पुष्टि करता है कि संघ और भाजपा के बीच एक दीवार निश्चित खड़ी हो गई है वे कहते हैं उन्हें अब संघ की जरूरत नहीं है। यह बहुत मारक टिप्पणी है। जिससे स्वयं सेवक खासतौर पर ख़फ़ा है। वहीं कुछ लोगों का मानना है कि यह भाजपा की चाल है कि वह संघ से दूरी दिखाकर अपने आपको धर्मनिरपेक्ष और मिली-जुली संस्कृति की पक्षधर दिखाना चाहती है ताकि मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में होने जा रहे चुनावों में वोट लिए जा सकें।
यह भी सत्य है कि सौराष्ट्र और महाराष्ट्र के विवाद ने ही संघ और भाजपा की दूरी बढ़ाई है। गुजरात लाबी को मोदी-शाह ने जितना प्रमोट किया उतना महाराष्ट्र को नहीं। इससे संघ की अर्थव्यवस्था संकट में है। एक चतुर व्यापारी की तरह मोदी ने सत्ता का इस्तेमाल किया है जिससे अडवाणी और संघ के बुजुर्ग कार्यकर्ता परेशान हैं। आज के दौर में सत्ता तभी सफल मानी जाती है जब पार्टी की अर्थव्यवस्था मज़बूत हो ताकि गाहे-बगाहे धन का इस्तेमाल असंसदीय तिकड़मों के लिए हो सके। भविष्य में लगता है यदि मोदी 2024 में सफल होते हैं तो निश्चित संघवादी होते हुए भाजपा एक-एक संघी को सबक सिखा देगी चूंकि उसे अपना कोई प्रतिद्वंद्वी पसंद नहीं।
हालांकि संघवाद से आज़ादी का बिगुल कन्हैया कुमार ने जेएनयू में बड़े उत्साह से बजाया था तब यह नहीं पता था कि यह संघी विरोध में भाजपा का नारा बन जाएगा। लेकिन यह छद्म है संघवादी सोच भाजपा की जान है वह उसकी ख़िलाफत नहीं कर सकती। दूसरे संघ और भाजपा का चेहरा चाल चरित्र सब एक जैसा है कब कौन किसके चरण वंदन में लग जाए कहा नहीं जा सकता। किसी ने सच ही कहा है खग ही खग की भाषा समझ सकता है। इसलिए मुगालते में ना रहें दोनों विष बुझे हैं सावधान रहें।
कुछ सूत्रों का कहना है कि इस बार संघ और भाजपा के बीच आर-पार की लड़ाई है। मोदीजी की अकड़,अपने को अवतारी कहना तथा संबित पात्रा का पुरी का बयान बवाल बन चुका है। जनता भी इसे कतई बर्दाश्त करने के मूड में नहीं है। कुल मिलाकर निरंतर अपने बयानों से घिरे मोदी मुसीबत में है। ऐसे में ‘संघ की ज़रूरत नहीं’ वाला बयान भारी पड़ सकता है। क्या वे भी तीन दिन उपवास कर संघ से क्षमा याचना कर स्थिति सुधारेंंगे या अपनी बात पर अडिग रहेंगे। दोनों स्थितियों में कोई फायदा नहीं दिख रहा है। माहौल बहुत बदल चुका है फिर भी खग की भाषा तो वे ही समझेंगे। हम सब तो कयास ही लगा सकते हैं।