गीता उपदेश के अनुसार ऐसे लोग कभी नहीं बनते दर्द की वजह, जीवनभर रहते हैं सुखी
हम सभी बचपन से ही श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ते आ रहे हैं। बता दें कि स्कूल के पाठ्यक्रम में इसे शामिल भी किया गया है, ताकि बच्चों को गीता का उपदेश के बारे में थोड़ी बहुत जानकारी मिल सके। इसमें कुल 18 अध्याय और 700 श्लोक है, जिसे संस्कृत भाषा में लिखा गया था। अब इसका अनुवाद कई भाषाओं में किया जा चुका है। कुरुक्षेत्र की रणभूमि में जब अर्जुन ने अपने परिवारजनों, गुरुओं और मित्रों को सामने शस्त्र के साथ देखकर युद्ध करने से इंकार कर दिया, तब भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें जीवन के विभिन्न पहलुओं, कर्तव्यों और धर्म के बारे में ज्ञान दिया। दरअसल, भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को आत्मा और शरीर का महत्व समझाया। उन्होंने बताया कि आत्मा अजर, अमर और अविनाशी है, जबकि शरीर नश्वर है। जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर नए वस्त्र धारण करता है, वैसे ही आत्मा एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में प्रवेश करती है। श्री कृष्ण ने अर्जुन को यह भी सिखाया कि अपने कर्तव्यों का पालन करना ही सच्चा धर्म है। उन्होंने कहा कि योद्धा का कर्तव्य है युद्ध करना और यदि अर्जुन अपने कर्तव्य से पीछे हटते हैं, तो यह उनके धर्म के विपरीत होगा। जिसके बाद यह लड़ाई लड़ी गई, जिसमें पांडवों को जीत हासिल हुई। आइए जानते हैं विस्तार से…
गीता उपदेश के अनुसार, जो लोग दर्द को समझते हैं वो लोग कभी भी दर्द की वजह नहीं बनते। दरअसल, जो व्यक्ति खुद पीड़ा का अनुभव करता है, वह दूसरों को पीड़ा देने का कारण नहीं बनता। जो व्यक्ति अपने जीवन में दुःख, दर्द और कष्ट का अनुभव करता है, वह दूसरों के कष्ट को अच्छी तरह समझता है। इसलिए वह दूसरों को कष्ट पहुंचाने से बचता है।
“आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः।।”
इसका अर्थ है, “हे अर्जुन! जो व्यक्ति अपने सुख-दुःख को सबके सुख-दुःख के समान देखता है, वह सबसे श्रेष्ठ योगी माना जाता है।”
यह श्लोक बताता है कि एक सच्चा योगी वही होता है जो दूसरों के सुख-दुःख को अपने सुख-दुःख के समान समझता है। ऐसा व्यक्ति किसी के प्रति द्वेष या हिंसा का भाव नहीं रखता और सबके प्रति करुणा, प्रेम और दया का भाव रखता है।