5 दिन का विधानसभा सत्र 2 दिन चल जाये तो समझिये हम एक कदम पीछे दो कदम आगे
मध्यप्रदेश में विधानसभा सत्रों की परम्परा जितनी तेजी से लुप्त हुर्ह है उतनी तेजी से तो कभी राज्य का, शहर का विकास भी नहीं हुआ है, लेकिन जब विकास के स्थान पर शहरों में झुग्गी-झोपडिय़ों का निर्माण हो जाता है, तब सरकार को झुग्गी मुक्त शहर बनाने की कोशिश करनी पड़ती है। ठीक इसी तरह मध्यप्रदेश में विधानसभा के सत्रों का हाल हो गया है, लेकिन अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है। परम्परायें पेड़-पौधों की जातियों की तरह नहीं है लुप्त हो जाये, तो उसे वापस लौटाई ना जा सके। इसलिए मप्र के मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव विधानसभा के अध्यक्ष नरेन्द्र सिंह तोमर और विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष उमंग सिंघार तीनों से यह उम्मीद करना गैरवाजिब नहीं होगा कि हम मप्र में भले ही विधानसभा की गौरवशाली परम्पराओं के मामले में एक कदम पीछे हैं, तो आपको समझना होगा कि दो कदम आगे बढऩे की संभावनाओं पर काम क्यों नहीं किया जा सकता। मतलब स्पष्ट है कि 230 सदस्यों की मप्र विधानसभा में 5 दिन का छोटा सा सत्र जनता के साथ न्याय नहीं कर सकता। शीतकालीन सत्र भी यदि है तो भी यह सत्र कम से कम 10-15 दिन का बिना बाधा के, बिना नागा के चलना ही चाहिए। हालांकि सत्र को सीमित रखने के पीछे मुख्यमंत्री, विधानसभा अध्यक्ष या फिर नेता प्रतिपक्ष किसी का भी इनटेंशन नहीं है। लेकिन जब आप विधानसभा में जनता की समस्याओं और जन भावनाओं को लेकर बहस करते हैं, तो बात राजधानी भोपाल से लेकर झाबुआ, अलीराजपुर के उस गांव तक जाती है, जो गुजरात राज्य का मॉडल होता है। इसलिए 5 दिन के सत्र का महत्व तब मायने रखता है, जब विधानसभा का हर सदस्य इसे 5 दिन तक पूरा चलाने में सहमत हो। स्मरण हो कि 1956 से 2000 तक मप्र की विधानसभा 320 सदस्यों की थी और गौरवशाली परम्परायें ऐसी थी कि विधानसभा के चपरासी से लेकर विधानसभा का प्रमुख सचिव भी विधानसभा के सत्रों को उत्सव और त्योहार की तरह अंगीकार करता था और तब सदन के नेता हो या नेता प्रतिपक्ष संसदीय कार्य मंत्री के साथ बैठकर सत्र में बिजनेस को लेकर निर्धारण के लिए घंटों बैठते थे और परिणाम स्वरूप जब विधानसभा का सत्र कम समय के लिए आहूत हो, तब लोकहित और जनहित के मुद्दों को आखरी निष्कर्ष तक पहुंचाने के लिए 16 घंटे, 18 घंटे तक भी सदन चले और सदन की कार्यवाही दूसरे दिन अखबारों की सुर्खियां कुछ इस तरह बनती थी, जैसे यूपीएससी के रिजल्ट में कौन मैरिट में आया है, उसी तरह किस विधायक ने सदन के अंदर कितना बढिय़ा परफॉर्म किया है उसका आंकलन होता था। और तो और विधानसभा में जितनी भी अलग-अलग परम्परायें जिसे निर्णायक बनाने के लिए अध्यक्ष, मुख्यमंत्री और नेता प्रतिपक्ष बैठकों का दौर चलाते थे। वह समय चला गया है, लेकिन उसे वापस लौटाने की जिम्मेदारी अब आप तीनों पर है, यूं कहा जाये कि मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव यदि अपने जनकल्याण की परिभाषा को 5 प्रति हिस्सें में बांट लें तो एक दिन का सत्र जरूर आ जायेगा और जनता के सामने न्याय की परम्परा लौटेगी। इसलिए विशेष संपादकीय का लब्बोलुआब यह है कि मप्र विधानसभा की राज्य के विभाजन के बाद सदस्यों की संख्या कम भले ही हो गई हो, मतलब 320 घटकर 230 हो गई हो तो भी गौरवशाली परम्पराओं की संख्या कम नहीं हुई है, बस जरूरत है मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव विधानसभा सत्र में पूरे समय तक रहें और जनकल्याण पर्व की परिभाषा को विधानसभा के अंदर भी परिभाषित करें, ताकि सब सदस्यों को पता चले कि मप्र की सरकार की दशा और दिशा क्या है। यह बात अवश्य है कि मप्र में अब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का विजन मप्र के विकास का रोड मेप है, लेकिन यदि लाड़ली बहनों से आगे बढ़कर लखपति दीदीयां आप भूलने लगे तो यह भी मामला एक कदम पीछे और दो कदम आगे के समान है, अर्थात् जब आप विधानसभा सत्र का अनुभव मेहसूस कर रहे हो तो मतदाताओं को भी यह लगना चाहिए कि जनकल्याण पर्व के लिए विधानसभा में भी आपको वित्तीय पोषण की अनुमति दे दी है। यदि ऐसा आपने कर लिया तो समझिये और चौंकिए मत। यह समझकर कि आप सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं।