क्या करें शिवराज-महाराज, प्रधानमंत्री दोनों से नाराज
मप्र की राजधानी भोपाल आज प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के आगमन के बाद मप्र की संपूर्ण राजनीति को मोदीमय की सुगंध में समेटते हुए भाजपा की राजनीति में नई संस्कृति का संदेश देने जा रहा है और यह संदेश समझने वालों के लिए नाकाफी है, क्योंकि मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव को मप्र में मोदी का विजन और मोहन यादव के मिशन के अलावा कुछ भी समझ में नहीं आता और यही उनकी आज की तारीख में सबसे बड़ी राजनैतिक शक्ति का प्रदर्शन है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन दूसरी ओर जिस ग्वालियर-चंबल संभाग के महाराजा ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कमलनाथ की 15 महीनों की सरकार को उखाड़ कर मप्र के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के लिए चौथी पारी का रास्ता खोला था उनकी उस राजनीत को समझने में प्रधानमंत्री ने डेढ़ साल लगा दिए। लेकिन जब प्रधानमंत्री को महाराज की राजनीति का मकसद समझ में आया तब उन्होंने शिवराज और महाराज दोनों को अपने राजनैतिक टीम का हिस्सा बनाने से परहेज कर लिया यह वाक्य इसलिए नहीं लिखा जा रहा है कि, शिवराज और महाराज की युक्ति में कोई खोट है, बल्कि इसलिए लिखा जा रहा है क्योंकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव के कार्यकाल में अब तक मप्र में जितनी भी यात्राएं हुई उसकी छिद्रानुवेषण करने के बाद पता चलता है कि प्रधानमंत्री मोदी ने शिवराज-महाराज दोनों से नाराजगी भरी दूरी बनाई है। सूत्रों का कहना है कि, शिवराज को केन्द्र में कृषि मंत्री बनाने के बाद भी उनकी हैसियत को कमतर करके आकलन करना तथा महाराज की राजनीति का विश्लेषण करने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंंचना कि महाराज यदि ईमानदार है तो फिर परिवहन एवं राजस्व मंत्री रहते हुए अपने चहेते गोविन्द सिंह राजपूत पर कार्यवाही करने की बजाय उनके कृत्यों पर पर्दा डालकर प्रधानमंत्री के विजन और भ्रष्टाचार के खिलाफ जीरो टॉलरेंस के फार्मूले को कमजोर किया जा रहा है। शायद इसलिए मप्र की साढ़े 9 करोड़ जनता के लिए शिवराज के मामले ने प्रधानमंत्री ने दूरी स्थापित करते हुए यह साबित किया है कि, 17 वर्षों में जितने घोटाले हुए थे चाहे डंपर घोटाला हो, व्यापम घोटाला हो, शराब घोटाला हो, पोषण आहार घोटाला हो, या कोविड के कार्यकाल में दवाई खरीदी से लेकर आयुष्मान योजना में हुए घोटालों को लेकर प्रधानमंत्री ने यह जताने की कोशिश की है कि, शिवराज सिंह चौहान भले ही उनके मंत्रिमंडल में वरीयता के आधार पर 5वें नंबर पर हैं लेकिन उनके मन की बात के करीब पहुंचने में शिवराज सिंह चौहान निश्चित रूप से एक असफल राजनेता हैं यह प्रधानमंत्री ने जताने की कोशिश की है। यदि प्रधानमंत्री के मप्र में हुए 18 महीनों के दौरान हुए कार्यक्रमों का आकलन किया जाए तो यह सार्वजनिक रूप से विदित होता है कि प्रधानमंत्री के हर बड़े कार्यक्रमों से शिवराज और महाराज को दूर रखा गया है। वरना राजनैतिक परंपराओं और प्रोटोकाल का भी हम यदि उदाहरण प्रस्तुत करें तो मप्र में प्रधानमंत्री किसी भी दल का आए उनकी पार्टी का हर बड़ा नेता और यदि प्रधानमंत्री अपनी ही पार्टी के शासित राज्यों में जाए तो वहां के मुख्यमंत्री, केन्द्रीय मंत्री तथा सभी बड़े नेताओं को एयरपोर्ट पर खड़े होकर अगवानी करने तथा प्रधानमंत्री के कार्यक्रम के उस मंच में स्थान देने की राजनीति से इंकार नहीं किया जा सकता लेकिन मप्र में अब ऐसा नहीं है, प्रधानमंत्री मोदी के विगत 4-5 मप्र के दौरों पर नजर डाले तो स्पष्ट पता लगता है कि, मुख्यमंत्री डॉ. यादव और राजपाल मंगुभाई पटेल केवल दोनों ही प्रधानमंत्री के पसंददीदा कर्णधार के रूप में देखे जाते हैं जिनकी वजह से मप्र में खुशहाली उपलब्ध कराने के लिए प्रधानमंत्री हरदम तैयार हैं। वरना 15-20 वर्षों से लटकी 45 हजारों करोड़ की केन-बेतवा परियोजना, 17 हजार करोड की कालीसिंध, और महाराष्ट्र और मप्र के बीच में हाल ही में संधि किए कए 9 हजार करोड़ की ताप्ति परियोजना की स्वीकृति इतनी आसानी से नहीं मिलती। इसलिए इस कड़वी खबर का लब्बोलुआब यह है कि शिवराज- महाराज दोनों को अपनी राजनैतिक भूल-चूक सुधारनी पड़ेगी और दोनों नेताओं ने प्रधानमंत्री मोदी को लेकर जिस अंदाज से प्रधानमंत्री की तारीफ की जाती है उसमें भी संभल-संभल कर जुवान खोलनी पड़ेगी और मप्र की बेहतरी अपनी जगह है लेकिन प्रधानमंत्री का स्नेह और समर्थन सिर्फ डॉ. मोहन यादव को क्यों मिल रहा है तथा शिवराज और महाराज से प्रधानमंत्री दूरी क्यों बना रहे हैं यह खोज का विषय है ऐसा माना जाए तो चौंकिएगा मत।