महाराष्ट्र के एक गांव से निकला सिंधिया राजघराना 80 एकड़ में फैला है ग्वालियर का जयविलास पैलेस; नेहरू ने दिलाई राजनीति में एंट्री
ग्वालियर के महाराजा जनकोजी राव सिंधिया का 1843 में निधन हो गया, तब उनकी पत्नी तारा बाई की उम्र महज 14 साल थी। देश पर अंग्रेजों का राज था। ईस्ट इंडिया कंपनी का तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड एलिनवरो ऐसे ही किसी मौके की तलाश में था कि सिंधिया राजघराने का कोई वारिस न रहे, ताकि वह रियासत को हड़प ले।
उसकी इस मंशा पर सिंधिया परिवार के वफादार सरदार संभाजी राव आंग्रे ने पानी फेर दिया। सरदार आंग्रे ने जनकोजी राव के निधन की खबर फैलने से पहले सरदार हनुमंत राव के 8 साल के बेटे भागीरथ को गोद लिया वारिस घोषित करवा दिया। इस बच्चे का नया नाम रखा गया जयाजीराव सिंधिया। जिन्होंने बाद में ग्वालियर का जयविलास पैलेस बनवाया।
सिंधिया राजपरिवार से जुड़े ऐसे ही ऐतिहासिक और दिलचस्प किस्से हैं। महाराष्ट्र के सतारा जिले के गांव से निकला सिंधिया राजपरिवार आज देश की राजनीति में अपनी अलग पहचान रखता है। इस परिवार के राजनीति में आने की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है। पंडित जवाहर लाल नेहरू के कहने पर राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने राजनीति में कदम रखा था।
परिवार की तीसरी पीढ़ी के रूप में ज्योतिरादित्य सिंधिया राजनीति में सक्रिय हैं। उनकी मां राजमाता माधवी राजे सिंधिया का 15 मई को दिल्ली में निधन हो गया। उनके निधन के बाद एक बार फिर सिंधिया राजघराने की चर्चा है। आखिर एक छोटे से गांव से ताल्लुक रखने वाले सिंधिया परिवार की सियासत में एंट्री कैसे हुई, 1874 में बना जय विलास पैलेस कैसे पिछले 5 दशकों से देश की राजनीति का केंद्र बना है,
सिंधिया राजघराने का ताल्लुक महाराष्ट्र के सतारा जिले के कान्हेरखेड़ गांव से
सिंधिया राजघराने की स्थापना महाराष्ट्र के सतारा जिले के कान्हेरखेड़ गांव के रहने वाले पाटिल राणोजी सिंधिया ने की थी। बाद में ये राजपरिवार ग्वालियर आ गया। 1818 में अंग्रेजों के साथ हुए युद्ध में मराठों की हार हुई। इसके बाद राणोजी के बेटे दौलतराव सिंधिया ने अंग्रेजों की स्वायत्ता स्वीकार कर ली। नतीजा, अजमेर अंग्रेजों को देना पड़ा।
दौलतराव की मृत्यु के बाद महारानी बैजा बाई ने रियासत का कामकाज संभाला। उनकी कोई संतान नहीं थी। उनके बाद गोद लिए हुए बेटे जनकोजी राव ने सत्ता संभाली, लेकिन 1843 में उनकी बेहद कम उम्र में मृत्यु हो गई। उस वक्त उनकी विधवा तारा बाई किशोरी थी, उनकी कोई संतान नहीं थी।
सिंधिया रियासत को बचाने के लिए किसी वारिस का होना जरूरी था। जनकोजी राव के मरणासन्न होते ही रियासत के वफादार संभाजी राव आंग्रे घोड़े पर सवार हुए और वहां जा पहुंचे जहां रियासत के सरदारों के बच्चे कंचे खेल रहे थे।
सरदार आंग्रे ने देखा कि सरदार हनुमंत राव सिंधिया के बेटे भागीरथ राव का निशाना अचूक था, साथ ही वह रणनीति बनाकर खेल रहा था। भागीरथ की सूझबूझ देख सरदार आंग्रे ने उसे घोड़े पर बिठाया और तत्काल मरणासन्न जनकोजी के पास ले जाकर, उसे उनका गोद लिया वारिस घोषित करवा दिया।
28 साल बाद मिला जयाजी राव को महाराजा का अधिकार
सरदार आंग्रे की सूझबूझ से सिंधिया राजवंश को वारिस तो मिल गया, लेकिन जयाजी राव को महाराजा के सारे अधिकार 28 साल बाद 1885 में ही मिल सके। 8 साल का राजा और 14 साल की राजमाता को सत्ता-सूत्र सौंपने से कंपनी सरकार ने मना कर दिया और अपने एजेंट दिनकर राद राजवाड़े को दोनों का रीजेंट बना दिया।
इसी दौरान 1857 के संघर्ष का केंद्र बिंदु भी ग्वालियर ही बन गया। इस विद्रोह को समाप्त होने के बाद जब जयाजी राव युवा से प्रौढ़ हो गए तब कड़ी मशक्कत के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1885 में उन्हें महाराजा के अधिकार सौंपे और इससे पहले 1857 से अब तक के सैनिक के नुकसान की भरपाई के लिए 15 लाख रुपए भी वसूल किए, तब जयाजी राव को महाराजा माना।
जयाजी राव ने रियासत की कमान संभालने के लिए कई ऐसे काम किए जो आज भी याद किए जाते हैं। ग्वालियर से आगरा रेलवे ट्रैक से लेकर जयविलास पैलेस, विक्टोरिया बिल्डिंग, मोती महल का निर्माण करवाया। उनके बाद बेटे माधोराव सिंधिया जिन्हें माधो महाराज कहा जाता है, उन्होंने रियासत के कामकाज को आगे बढ़ाया।
सिंधिया स्कूल की नींव माधो महाराज ने रखी थी। साथ ही ग्वालियर से श्योपुर और मुरैना को जोड़ने वाली रियासत की ट्रेन चलाई। माधो महाराज के बाद जीवाजी राव सिंधिया ने कामकाज संभाला वे 1948 तक रियासत के आखिरी महाराजा थे। आजादी के बाद ग्वालियर रियासत का भारत में विलय हो गया।
ग्वालियर मध्य भारत का नया राज्य बना। जीवाजी राव ने राज्य प्रमुख के रूप में 28 मई 1948 से 31 अक्टूबर 1956 तक कार्य किया। इसके बाद मध्य भारत का मध्यप्रदेश में विलय हो गया। 1961 में जीवाजी राव के निधन के बाद राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने परिवार की विरासत को आगे बढ़ाया।
नेहरू के जोर देने पर सिंधिया राजपरिवार की राजनीति में एंट्री
आजादी के बाद हुए आम चुनाव में जब देश में कांग्रेस का डंका बज रहा था, तब ग्वालियर और गुना में हिंदू महासभा का दबदबा था। जीवाजीराव का झुकाव हिंदू महासभा की तरफ था। कहा जाता है कि ये बात देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को पसंद नहीं थी।
1956 में जीवाजी राव बॉम्बे गए थे। उसी दौरान महारानी विजयाराजे सिंधिया दिल्ली पहुंचीं और उन्होंने जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी से मुलाकात की। नेहरू ने जोर दिया कि जीवाजीराव को कांग्रेस में शामिल होना चाहिए। विजयराजे सिंधिया ने कहा- उनके पति की राजनीति में कोई रुचि नहीं है।
ये भी कहा कि वे हिंदू महासभा का न तो समर्थन करते हैं और न ही वित्तीय मदद। फिर, नेहरू ने उन्हें गोविंद वल्लभ पंत व लाल बहादुर शास्त्री से मिलने के लिए कहा। जब वे दोनों से मिलीं तो उन्होंने विजया राजे को कांग्रेस के टिकट पर गुना लोकसभा से चुनाव लड़ने के लिए कहा, तो वे तैयार हो गईं।
यहीं से सिंधिया परिवार का सियासी सफर शुरू हुआ। 1957 में वे गुना से सांसद चुनी गईं। पांच साल बाद ग्वालियर से सांसद बनीं।विजयाराजे सिंधिया गुना सीट से 6 बार चुनाव जीतीं। उनके बेटे माधवराव सिंधिया 4 बार और पोते ज्योतिरादित्य सिंधिया 3 बार यहां से चुनाव जीते।
राजमाता का कांग्रेस से एक दशक में ही टूट गया रिश्ता
राजमाता का कांग्रेस से रिश्ता एक दशक तक ही चला। दरअसल, 1966 में दो घटनाक्रम हुए थे। अविभाजित मप्र में सूखा पड़ा था। साथ ही सितंबर 1966 में ग्वालियर में पुलिस फायरिंग में आंदोलन कर रहे छात्रों की मौत हो गई थी। डीपी मिश्रा उस समय मप्र के मुख्यमंत्री थे।
राजमाता विजयाराजे सिंधिया इसी सिलसिले में डीपी मिश्रा से मिलने पहुंची थीं। राजघरानों से खार खाने वाले डीपी मिश्रा ने राजमाता को मुलाकात के लिए इंतजार करवाया। इसे विजयाराजे सिंधिया ने अपमान माना। वैसे भी उनकी डीपी मिश्रा से कभी नहीं बनी। इसी कड़वाहट के चलते उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी
निर्दलीय चुनाव लड़ा, फिर जनसंघ में हुईं शामिल
विजयाराजे सिंधिया ने 1967 में ग्वालियर की करैरा विधानसभा और गुना से निर्दलीय लोकसभा का चुनाव लड़ा और जीतीं। आरएसएस के प्रचारक कुशाभाऊ ठाकरे और प्यारेलाल खंडेलवाल के प्रस्ताव पर वह जनसंघ में शामिल हो गईं। इसके बाद उन्होंने गुना लोकसभा सीट छोड़ दी और उन्हें मध्यप्रदेश विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बनाया गया।
डीपी मिश्रा के खिलाफ जब गोविंद नारायण सिंह की अगुवाई में कांग्रेसी विधायकों ने बगावत की, तो विजयाराजे सिंधिया ने उनका साथ दिया। जनसंघ की मदद से गोविंद नारायण सीएम तो बन गए, लेकिन बाद में कांग्रेस में लौट गए।
1971 में इंदिरा लहर के बीच जनसंघ के टिकट पर राजमाता विजया राजे सिंधिया भिंड से, उनके 26 वर्षीय बेटे माधवराव सिंधिया गुना से और अटल बिहारी वाजपेयी ग्वालियर से जीते। आपातकाल में माधव राव सिंधिया देश छोड़कर नेपाल चले गए थे। 1977 व 1984 में विजयाराजे सिंधिया ने चुनाव नहीं लड़ा।
1980 में भाजपा की संस्थापक सदस्य बनीं
जनता पार्टी के पतन के बाद 1980 में भारतीय जनता पार्टी का गठन हुआ। विजयाराजे सिंधिया इसकी संस्थापक सदस्यों में थीं। 1980 में भाजपा ने विजयाराजे सिंधिया को इंदिरा गांधी के खिलाफ रायबरेली से प्रत्याशी बनाया। हालांकि, वे चुनाव हार गईं।
1989 में वे फिर अपनी परंपरागत सीट गुना में लौटी और सांसद चुनी गईं। 1991, 1996, 1998 में वे यहां से जीतती रहीं। 1999 में उन्होंने चुनावी राजनीति से दूरी बना ली। आपातकाल में इंदिरा गांधी ने उन्हें जेल में डाल दिया था। तब उन्हें तिहाड़ जेल में सांसद गायत्री देवी के साथ एक कोठरी में रहना पड़ा था।
गिरफ्तार न किए जाने के आश्वासन पर लौटे माधव राव ने चुनी अलग राह
राजमाता पैरोल पर बाहर आईं। नेपाल में निर्वासित रहने को मजबूर माधवराव सिंधिया कांग्रेस की सरकार द्वारा गिरफ्तार न किए जाने के आश्वासन पर भारत लौट आए। कांग्रेस ने उन्हें पार्टी में शामिल होने के लिए कहा। आपातकाल के बाद 1977 में जब आम चुनाव हुआ तो माधवराव सिंधिया ने मां से अलग राह पकड़ ली।
वे ग्वालियर से स्वतंत्र प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़े और जीते। इसके बाद कांग्रेस में शामिल हो गए। माधव राव कुछ ही सालों में इंदिरा गांधी और संजय गांधी के करीबी हो गए। 1980 में राजमाता के इंदिरा गांधी के खिलाफ रायबरेली से चुनाव मैदान में उतरने से माधव राव बेहद नाराज थे। 1984 में उन्होंने ग्वालियर में अटल बिहारी वाजपेयी को हरा दिया।
वे लगातार नौ बार सांसद चुने गए। 1998 तक ग्वालियर सीट से ही जीतते रहे। 1999 में उन्होंने सीट बदलकर गुना से चुनाव लड़ा और सांसद बने। राजीव गांधी और पीवी नरसिंहा राव की सरकार में मंत्री भी रहे। जैन हवाला मामले में नाम आने पर माधवराव ने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था।
1996 में टिकट न मिलने पर कांग्रेस छोड़कर मध्यप्रदेश विकास कांग्रेस नामक पार्टी बनाई। एचडी देवेगौड़ा और इंद्रकुमार गुजराल के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन का हिस्सा बने। 1998 में फिर कांग्रेस में शामिल हो गए और 2001 में विमान हादसे में मृत्यु होने तक पार्टी में रहे।
राजमाता की दो बेटियां राजनीति में, पोते ने संभाली पिता की विरासत
राजमाता विजया राजे सिंधिया की चार बेटियों में से दो राजनीति में हैं। वसुंधरा राजे ने 1985 में राजस्थान की धौलपुर सीट से जीत हासिल कर सियासी पारी शुरू की। 1989 में उन्होंने झालावाड़ सीट से लोकसभा का चुनाव जीता। उन्होंने 2003 तक संसद में झालावाड़ का प्रतिनिधित्व किया। इसके बाद राजस्थान लौटीं और मुख्यमंत्री बनीं।
2018 तक राज्य की मुखिया रहीं। वसुंधरा राजे के पुत्र दुष्यंत सिंह वर्तमान में झालावाड़-बारन सीट से सांसद हैं। इस बार भी वे प्रत्याशी हैं। वसुंधरा की छोटी बहन यशोधरा राजे 1990 में अमेरिका से भारत लौटीं, तो उन्होंने भी राजनीति में कदम रखा। 1998 में पहली बार चुनाव जीतकर वे मप्र की विधानसभा पहुंची।
उसके बाद 2003, 2013 और 2018 में विधायक चुनी गईं और प्रदेश की शिवराज सरकार में मंत्री रहीं। वहीं, माधवराव के बाद उनकी राजनीतिक विरासत ज्योतिरादित्य सिंधिया आगे बढ़ा रहे हैं। दादी की तरह उन्होंने भी 2020 में कांग्रेस की कमलनाथ सरकार को गिरा कर सूबे में भाजपा की सरकार बनवाई थी। अब वे भाजपा के टिकट पर गुना लोकसभा से प्रत्याशी हैं।\राजमाता विजयाराजे की 100वीं जयंती के मौके पर उनकी दोनों बेटियां, वसुंधरा राजे और यशोधरा राजे सिंधिया।
80 एकड़ में फैले जयविलास पैलेस की खासियत भी जान लीजिए
400 कमरे, भव्य दरबार हाल, बड़ी-बड़ी झूमर, चमचमाते दरवाजे-खिड़कियां, छतों पर गोल्डन कारीगरी। रसोई घर से लेकर डायनिंग टेबल तक चांदी की पटरियों पर चलने वाली चांदी की ट्रेन, जो सीधे शाही मेहमानों की थाली तक भोजन पहुंचाती है। कुछ ऐसा है सिंधिया राजघराने का जयविलास पैलेस।
सोने की छत के नीचे खाना परोसती चांदी की ट्रेन और हीरों की तरह दमकते बेल्जियम के झूमर यहां की शोहरत बयां करता है। ये एक ऐसा महल है, जिसकी दीवारें सोने की हैं। दीवारों पर सोने और कई अमूल्य धातुओं से की गई नक्काशी देखते ही बनती है।
मराठा सिंधिया राजवंश की शोहरत बयां करता जय विलास पैलेस दुनिया में अपनी भव्यता के लिए जाना जाता है। 1874 में ग्वालियर के महाराजा जयाजीराव सिंधिया द्वारा बनाया गया ये महल 19वीं शताब्दी में सिंधिया घराने का शाही निवास रहा है। इस पैलेस के दो मुख्य द्वार भी बनाए गए। आगे-पीछे दोनों तरफ से देखने पर ये पैलेस एक जैसा दिखता है। यहां बने 400 कमरों में 35 कमरों को म्यूजियम में तब्दील कर दिया गया है