बसें बिकने के कगार पर:स्लीपर कोच की सवारियां 1.75 लाख से घटकर 44 हजार आईं

5 महीनें से प्राइवेट स्लीपर कोच बसें धूल खा रही है। लॉकडाउन लगने की वजह से बसों का संचालन बंद हुआ जो अनलॉक के ढाई महीने बाद भी पटरी पर नहीं लौट सका। कोरोना के डर से ट्रैफिक 20 फीसदी ही रह गया, जिससे सवारियों की पूर्ति नहीं होने से बसों को बार-बार कैंसिल करना तो रहा ही। दूसरा डीजल के दामों में 29 रुपए प्रति लीटर की बढ़ोतरी होने से बस संचालकों का खर्चा भी नहीं निकल रहा।
जयपुर शहर से सबसे ज्यादा गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तराखंड के हरिद्वार और मध्यप्रदेश व हिमाचल तक स्लीपर कोच बसों का संचालन होता है। लॉकडाउन से पहले 5 हजार बसें चल रही थी, जिसकी संख्या घटकर 2200 बसें ही रह गई। शेष 2800 के करीब बसें तो पिछले साल से ही खड़ी ही हैं। इसमें से कई तो कबाड़ होने की स्थिति तक जा पहुंची हैं।
20 फीसदी ही ट्रैफिक रह गया, टैक्स जमा करवाने के पैसे भी नहीं : पहले जहां रोजाना 1.75 लाख लोग स्लीपर कोच से सफर कर रहे थे, जिनकी संख्या घटकर करीब 44-45 हजार के करीब ही रह गई है। यही वजह है कि पोलो विक्ट्री, सी स्कीम, खासा कोठी और मेट्रो ट्रेक के नीचे बड़ी संख्या में बसें खड़ी धूल खा रही हैं।
ऑल राजस्थान कॉटेक्ट बस ऑपरेटर एसोसिएशन के अध्यक्ष राजेंद्र शर्मा ने बताया कि कोरोना के बाद से बसों का संचालन हो ही नहीं पाया, न तो पर्याप्त सवारियां नहीं मिल पा रही है। अब 20 फीसदी ही ट्रैफिक रह गया है। बस संचालकों की टैक्स जमा करवाने की स्थिति भी नहीं हैं। अधिकतर बस मालिकों ने बिकवाली निकवा रखी है। उनकी कोई सुनने वाला नहीं हैं।