शिवपुरी सीट पर भाजपा में हाई बोल्टेज आपाधापी,उलझा टिकट का गणित
शिवपुरी विधानसभा सीट को भाजपा ने होल्ड पर रखा हुआ है। भाजपा के कब्जे वाली इस सीट से प्रत्याशी घोषित न होना पार्टी के अन्दर खाने में चल रही कशमकश को उजागर कर रहा है। यशोधरा राजे सिंधिया के द्वारा सीट छोडऩे की घोषणा के बाद से दावेदारों की फौज उमड़ आई है, जिसमेंं पार्टी के दो दो पूर्व विधायकों से लेकर कई चेहरे लाइम लाइट में आना शुरु हो गए हैं। पार्टी के भीतर कुछ ऐसा भी दिखाई दे रहा है जिसे उजागर करने से पार्टी भी फिलहाल बच कर चल रही है। कुल मिलाकर परिदृश्य बेहद उलझन पूर्ण हो गया है।
घटनाक्रम पर बारीकी से गौर करें तो मौजूदा विधायक यशोधरा राजे सिंधिया ने 4 सितम्बर को शिवपुरी सीट से ही चुनाव लडऩे की हुंकार भरी थी और कहा था कि मैं अस्थाई नहीं मैं तो स्थाई हूं, सामने कौन है इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। उनके इस कथन को सामने रखें तो इस ऐलान के ठीक 24 दिन बाद ही ऐसा क्या हुआ कि 28 सितम्बर को यशोधरा राजे सिंधिया का मन बदल गया और वे स्वास्थ्य कारणों को गिनाते हुए खुद ही मैदान से हट जाने का ऐलान कर बैठीं। यशोधरा राजे का एकाएक चुनाव से मुंह मोडऩा और अब उनके समर्थकों का पार्टी नेतृत्व पर राजे को टिकट देने के लिए दबाव बनाना, भोपाल जाकर प्रदर्शन करना, परस्पर कई विरोधाभासों को जन्म दे रहा है। साथ ही यह भी परिलक्षित हो रहा है कि पार्टी किसी अन्य फार्मूले पर विचार कर रही है, जिसके चलते पार्टी कई चेहरों को इस चुनाव में रिप्लेस करने का मन बना चुकी है।
ऐसा आखिर हुआ तो क्या हुआ
ऐसा क्या है कि जिसका खुलासा न तो पार्टी संगठन की ओर से किया जा रहा न राजे समर्थक ही कुछ बोलने को तैयार हैं, कि आखिर 4 सितम्बर को हां करने के बाद यशोधरा राजे ने फिर न और अलविदा शिवपुरी क्यों बोला। क्या इसके पीछे पार्टी की अन्दरुनी सर्वेक्षण रिपोर्ट्स प्रभावी हैं, या फिर पार्टी ने गुजरात फार्मूले में शिवपुरी को भी शामिल करने का मन बना लिया है, अथवा फिर जिस शहरी क्षेत्र से भाजपा बम्पर बहुमत से चुनाव जीतती आ रही थी, वहां का माहौल नपा की राजनीति ने बदल डाला है, जिसकी चर्चा हर तरफ सुनाई दे रही है। यह सब बिन्दु पार्टी स्तर पर समीक्षा का विषय हो सकते हैं। अब यदि राजे खुद स्वास्थ्य कारणों से स्वेच्छा से हटीं तो फिर उनके समर्थक पार्टी नेतृत्व पर किस मंशा से टिकट के लिए दबाव बना रहे हैं। विरोधी दल काँग्रेस के नेता तो यहां तक कह रहे हैं कि इस बार पहली वार ऐसा हुआ है जब सिंधिया परिवार का कोई सदस्य कौग्रेस में नहीं है और चुनाव कैसे होगा यह एकजुट काँग्रेस को तय करना है, ऐसे में किसी हल्के प्रत्याशी को दिखावे के लिए पार्टी चुनाव लड़ाएगी इसकी सम्भावना नगण्य है। जाहिर है इस बार रण रोचक होगा। वैसे भी खुद ज्योतिरादित्य सिंधिया 2019 में इस विधानसभा सीट को लोस चुनाव में हार चुके हैं।
सिंधिया सहित अब सामने आए कई दावेदार
दोनों दलों में सिंधियाओं की धमक ने अब तक यहां यह राजनैतिक हालात बना कर रखे थे कि लोक सभा में कोई ज्योतिरादित्य सिंधिया के विकल्प के बारे में सोच नहीं सकता था और विधानसभा में यशोधरा राजे सिंधिया के बारे में भीयही मान्यता कायम रही। ज्योतिरादित्य सिंधिया चुनाव क्या हारे और फिर जिस तरह से उन्होंने दल बदल किया उससे उनकी वह धमक यहां गुम हो गई। खुद भाजपा में ही उनको उनके ही दल के लोग निशाना बनाने से नहीं चूक रहे, और काँग्रेस सिंधिया मुक्त हो गई है, जिसका असर शिवपुरी विधानसभा में भी देखने में अब आ रहा है।
चर्चा यह भी है कि नपा चुनावों के बाद जो कुछ हुआ उससे यशोधरा राजे की साख भी खासी प्रभावित हुई हैं। अध्यक्ष के चुनाव में भारी विवाद, फिर अध्यक्ष की कार्यशैली, नपा चुनाव में पार्षदों के टिकटावंटन में वैश्य समाज के दावेदारों का सफाया, मौजूदा भाजपा पार्षदों का बिखराव, आदि कई ऐसे विषय सामने आए कि इनका प्रभाव प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर यशोधरा राजे पर भी पड़ा।