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जरूरी है देवभूमि की अपनी राजनीतिक संस्कृति

 देहरादून। उत्तराखंड अपनी स्थापना के 22 वर्ष पूर्ण कर अब 23वें में प्रवेश कर रहा है। इस अवधि में राज्य ने विकास के तमाम आयाम स्थापित किए और कई बड़ी उपलब्धियां अपने खाते में दर्ज की, मगर अपनी अलग राजनीतिक संस्कृति विकसित करने के दृष्टिकोण से उत्तराखंड अब भी लगभग खाली हाथ है। छोटे राज्यों के लिए सर्वाधिक खतरनाक राजनीतिक अस्थिरता से उत्तराखंड लगातार जूझता रहा है। यद्यपि, यह कुछ सुकून की बात यह है कि राजनीति के अपराधीकरण से उत्तराखंड फिलहाल बचा हुआ है।

उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में इस पर्वतीय क्षेत्र के विकास में पिछड़ेपन के कारण उत्तराखंड को अलग राज्य बनाने की मांग ने जन्म लिया था। नौ नवंबर 2000 को जब उत्तराखंड (तब नाम उत्तरांचल) अस्तित्व में आया, तो सबको उम्मीद थी कि अब यहां विकास का पहिया तेजी से घूमेगा। पहले की अपेक्षा विकास तो हुआ, लेकिन राजनीतिक परिस्थितियों ने विकास की गति पर अड़ंगा लगाने का काम किया। इसकी शुरुआत पहली अंतरिम सरकार से ही हो गई। पहले मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी एक साल का कार्यकाल भी पूरा नहीं कर पाए, जबकि उनके उत्तराधिकारी भगत सिंह कोश्यारी चंद महीने ही मुख्यमंत्री रहे, क्योंकि वर्ष 2002 में हुए पहले विधानसभा चुनाव में भाजपा सत्ता से बाहर हो गई।

वर्ष 2002 में कांग्रेस के सत्ता में आने पर अनुभवी नारायण दत्त तिवारी मुख्यमंत्री बने। उन्होंने अपना पांच साल का कार्यकाल पूर्ण किया और ऐसा करने वाले राज्य के अब तक के अकेले मुख्यमंत्री हैं। तिवारी के समय राज्य में उद्योगों की स्थापना में तेजी जरूर आई, लेकिन यह भी सच है कि कांग्रेस के अंतकर्लह ने उन्हें पूरे पांच साल अस्थिर करने में कसर नहीं छोड़ी। फिर भाजपा वर्ष 2007 में सत्ता में आई तो पांच साल में तीन मुख्यमंत्री बने। भुवन चंद्र खंडूड़ी दो बार और रमेश पोखरियाल निशंक एक बार। वर्ष 2012 में कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई तो पांच साल में दो मुख्यमंत्री प्रदेश की जनता ने देखे। पहले विजय बहुगुणा, फिर हरीश रावत। वर्ष 2017 में भाजपा ने तीन-चौथाई से अधिक बहुमत हासिल किया, लेकिन अगले पांच साल में राज्य को तीन मुख्यमंत्री मिले। त्रिवेंद्र सिंह रावत, तीरथ सिंह रावत और पुष्कर सिंह धामी।

धामी को इस साल की शुरुआत में भाजपा के लगातार दूसरी बार विधानसभा चुनाव जीतने पर लगातार दूसरी बार और कुल मिलाकर राज्य के 12वें मुख्यमंत्री बनने का अवसर मिला। वर्ष 2000 में उत्तराखंड के साथ ही दो अन्य राज्यों झारखंड और छत्तीसगढ़ का भी गठन हुआ था, लेकिन मुख्यमंत्रियों के आंकड़े के मामले में उत्तराखंड अव्वल है। यद्यपि झारखंड भी इसके आसपास ही है। इससे समझा जा सकता है कि नए राज्यों में राजनीतिक अस्थिरता का सबसे अधिक सामना उत्तराखंड को ही करना पड़ा। अन्य राज्यों की दलबदल की संस्कृति से उत्तराखंड स्वयं को अलग नहीं रख पाया। वैसे तो इसकी शुरुआत पहले विधानसभा चुनाव से ही हो गई थी, लेकिन वर्ष 2007 में तब सबका ध्यान इस ओर गया, जब मुख्यमंत्री बनाए गए भुवन चंद्र खंडूड़ी के लिए कांग्रेस विधायक टीपीएस रावत ने सीट खाली की और स्वयं खंडूड़ी की पौड़ी सीट से भाजपा से लोकसभा पहुंच गए।

इस घटनाक्रम की पुनरावृत्ति वर्ष 2012 में हुई। उस समय कांग्रेस के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के लिए भाजपा विधायक किरण मंडल ने सीट खाली की। दलबदल का चरम रहा वर्ष 2016, जब मार्च में विधानसभा के बजट सत्र के दौरान पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के नेतृत्व में कुल नौ विधायक कांग्रेस का दामन झटक भाजपा में शामिल हो गए। इसके बाद भी दो अन्य कांग्रेस विधायक भाजपा में गए। फिर तो पालाबदल का यह खेल उत्तराखंड की राजनीति की एक स्थायी पहचान सा बन गया। विशेषकर विधानसभा चुनाव के समय एक-दूसरी पार्टी में सेंधमारी चरम पर रहती है। इस वर्ष की शुरुआत में हुए विधानसभा चुनाव से पहले भी ऐसा ही कुछ नजर आया।

उत्तराखंड में भले ही राजनीतिक अस्थिरता रही है, लेकिन महत्वपूर्ण बात यह कि यहां अब तक के 22 वर्षों में कम से कम अपराध और राजनीति का घालमेल नहीं हुआ है। लगभग 80 प्रतिशत साक्षरता वाले इस पर्वतीय राज्य के लिए यह सुकून की बात है कि ऐसा कोई मामला या वाकया दृष्टिगोचर नहीं हुआ, जब राजनीति और अपराध के गठजोड़ या फिर अपराधियों के राजनीतिकरण की बात सामने आई हो। एक बात और, राज्य में दोनों ही प्रमुख दल, भाजपा और कांग्रेस सत्ता और विपक्ष में रहे हैं। विपक्ष का दायित्व है कि वह राज्य से जुड़े तमाम विषयों पर सरकार का मार्गदर्शन करे। जो कमियां, खामियां हैं, उन्हें दूर कराने को दबाव बनाए। इस दृष्टिकोण से देखें तो दोनों ही दल विपक्ष की तर्कसंगत भूमिका में स्वयं को साबित नहीं कर पाए।

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