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मुहर्रम की पहली तारीख़ – इस्लाम के दूसरे ख़लीफ़ा हज़रत उमर इब्न अल-खत्ताब की शहादत

इस्लाम के दूसरे खलीफा हजरत उमर इब्न अल-खत्ताब का जन्म मक्का के मशहूर क़ुरैश खानदान में दुआ था। आपके पिता का नाम खत्ताब इब्न नुफैल और माता का नाम हंतमा बिंते हिशाम था। अशिक्षा के दिनों में भी लिखना पढ़ना सीख लिया था, जो कि उस जमाने में अरब लोग लिखना पढ़ना बेकार का काम समझते थे। इनका कद बहुत ऊँचा, रौबदार चेहरा और गठीला शरीर था। उमर मक्का के मशहूर पहलवानों में से एक थे, जिनका पूरे मक्का में बड़ा दबदबा था। उमर सालाना पहलवानी के मुकाबलों में हिस्सा लेते थे।आरंभ में हजरत उमर इस्लाम के कट्टर शत्रु थे और मुहम्मद साहब को जान से मारना चाहते थे। उमर शुरू में बुत परस्ती करते थे तथा बाद में इस्लाम ग्रहण करने के बाद बुतो को तोड़ दिया, और अपना संपुर्ण जीवन इस्लाम धर्म के लिए न्योछावर कर दिया।
हज़रत उमर हजरत मुहम्मद साहब के प्रमुख चार सहाबा (साथियों) में से थे। वो हजरत अबु बक्र के बाद मुसलमानों के दूसरे खलीफा चुने गये। हज़रत मुहम्मद सल्ल. ने हजरत उमर को फारूक नाम की उपाधि दी थी। जिसका अर्थ सत्य और असत्य में फर्क करने वाला है। मुहम्मद साहब के अनुयाईयों में इनका नाम हजरत अबु बक्र के बाद आता है।
उमर मुसलमानों और मुहम्मद साहब का विरोध करते थे। पैगंबर मुहम्म्द साहब ने एक शाम काबे के पास जाकर अल्लाह से दुआ (प्रार्थना) की कि अल्लाह हजरत उमर को या अम्र अबू जहल दोनों में से एक जो तुझको प्रिय हो उसे हिदायत दे। यह दुआ उमर के बारे में स्वीकार हुई। हजरत उमर एक बार पैगंबर मुहम्मद के कत्ल के इरादे से निकले थे, रास्ते में नईम नाम का एक शख्स मिला जिसने उमर को बताया कि उनकी बहन तथा उनके पति इस्लाम स्वीकार कर चुके हैं। उमर गुस्से में आकर बहन के घर चल दिये। वह दोनों घर पर कुरआन पढ़ रहे थे। उमर उनसे कुरआन माँगने लगे मगर उन्होंने मना कर दिया। उमर क्रोधित होकर उन दोनों को मारने लगे।
उनकी बहन ने कहा हम मर जाएँगे लेकिन इस्लाम नहीं छोड़ेंगे। बहन के चेहरे से खून टपकता देखकर हजरत उमर को शर्म आयी तथा गलती का अहसास हुआ। कहा कि मैं कुरआन पढ़ना चाहता हूँ, इसको अपमानित नहीं करूंगा वादा किया। जब उमर ने कुरआन पढ़ा तो बोले यकीनन ये ईश्वर की वाणी है किसी मनुष्य की रचना नहीं हो सकती। एक चमत्कार की तरह से उमर कुरआन के सत्य को ग्रहण कर लिया तथा मुहम्मद साहब से मिलने गये। मुहम्मद साहब और बाकी मुसलमानों को बहुत प्रसन्नता हुई उमर के इस्लाम स्वीकार करने पर। हजरत उमर ने एलान किया कि अब सब मिलके नमाज काबे में पढ़ेंगे जो कि पहले कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था। हजरत उमर को इस्लाम में देखकर मुहम्म्द साहब के शत्रुओं में कोहराम मच गया। अब इस्लाम को उमर नाम की एक तेज तलवार मिल गई थी जिससे सारा मक्का थर्राता था।
मक्का वालों ने कमजोर मुसलमानों पर अत्याचार करना तेज कर दिया जिसको देखकर मुहम्मद साहब ने अल्लाह से दुआ की तो अल्लाह ने मदीने जाने का आदेश दिया। सारे मुसलमान छुपकर मदीने की तरफ हिजरत यानि प्रवास करने लगे। मगर उमर बड़े दिलेर थे अपनी तलवार ली धनुष बाण लिया, काबा के पास पहुँच कर तवाफ किया, दो रकअत नमाज पढ़ी फिर कहा “जो अपनी माँ को अपने पर रुलाना चाहता है, अपने बच्चों को अनाथ तथा अपनी पत्नी को विधवा बनाना चाहता है इस जगह मिले।” किसी का साहस नहीं हुआ कि उमर को रोके। उमर ने एैलान करके हिजरत की।
8 जून सन 632 को पैगंबर मुहम्मद की मृत्यु हो गयी। उमर तथा कुछ लोग ये विश्वास ही नहीं रखते थे कि मुहम्मद साहब की मुत्यु भी हो सकती है। ये खबर सुनकर उमर अपने होश खो बैठे, अपनी तलवार निकाल ली तथा जोर-जोर से कहने लगे कि जिसने कहा कि नबी की मौत हो गई है मैं उसका सर तन से अलग कर दूंगा। इस नाजुक मौके पर तभी अबु बक्र ने मुसलमानों को एक खुतबा अर्थात् भाषण दिया जो बहुत मशहूर है:

“जो भी कोई मुहम्मद की इबादत करता था वो जान ले कि वह वफात पा चुके हैं, तथा जो अल्लाह की इबादत करता है ये जान ले कि अल्लाह हमेशा से जिंदा है, कभी मरने वाला नहीं”
फिर कुरआन की आयत पढ़ कर सुनाई:

“मुहम्मद नहीं है सिवाय एक रसूल के, उनसे पहले भी कई रसूल आये। अगर उनकी वफात हो जाये या शहीद हो जाएँ तो क्या तुम एहड़ियों के बल पलट जाओगे?”
अबु बक्र से सुनकर तमाम लोग गश खाकर गिर गये, उमर भी अपने घुटनों के बल गिर गये तथा इस बहुत बड़े दु:ख को स्वीकार कर लिया।
हज़रत अबु बक्र ने अपनी मृत्यु के पहले ही हजरत उस्मान को अपनी वसीयत लिखवाई कि उमर उनके उत्तराधिकारी होंगे। अगस्त सन 634 ई में हजरत अबु बक्र की मृत्यू हो गई। उमर अब खलीफा हो गये तथा एक नये दौर की शुरुवात

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