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खेल में खेल भाग-1-कहानीकार आशीष और विनोद की बातचीत से

आशीष
“तो देख भाई, एक छोटा सा पहाड़ी देश है। बड़ा प्यारा, सुंदर और संस्कारी! लेकिन सबसे खास क्या? वहाँ का राजा! और भाईसाहब, ऐसा राजा कि पूछ मत! युवा, जोशीला, कर्मठ… सुबह उठते ही विकास के बारे में सोचता, रात को सोते हुए भी विकास के सपने देखता। देश को आगे ले जाना ही उसका ध्येय था!

अब जब राजा मेहनती हो, तो जाहिर है कि उसके फैसले भी बड़े होंगे। तो एक दिन राजा ने ठान लिया —हम अपने देश में एक भव्य खेल आयोजन करेंगे! ऐसा आयोजन कि दुनिया देखे और बोले, ‘वाह! ऐसा ऐतिहासिक आयोजन तो पहले कभी नहीं हुआ!’

अब राजा ने पूरी जान लगा दी। खुद भागदौड़ की, फंड का अंबार लगा दिया, और मेहनत इतनी कि घड़ी की सुई भी शर्मिंदा हो जाए! और मेहनत रंग भी लाई—’महाराज’ ने खुद उद्घाटन के लिए हामी भर दी! सोच, कितना बड़ा दिन होने वाला था!”

विनोद (हैरान होकर):
“ओहो! फिर तो जबरदस्त हुआ होगा! राजा की जय-जयकार गूंज गई होगी?”

आशीष (व्यंग्य भरे अंदाज में ठहाका लगाते हुए):
“हां, हां! जय जयकार गूंजा मगर अव्यवस्था का
“अब सुनो असली कहानी! राजा ने मेहनत की, लेकिन आयोजन के लिए जिम्मेदार अपनी जिम्मेदारी ढंग से नहीं निभा पाए

उद्घाटन में थी सिर्फ अव्यवस्था ही अव्यवस्था!

साउंड सिस्टम बेकार! राजा चाहता था कि उद्घाटन शंखनाद से गूंजे, लेकिन वहां तो पता ही नहीं चला कि शंखनाद हो रहा या हा हू।

मार्चपास्ट? अरे भाई, वो तो स्तरहीन था…लग रहा था बस मार्चपास्ट की फॉर्मेलिटी हो रही।

एंट्री गेट पर भीड़ ऐसी, मानो खेल देखने नहीं, मुफ्त का प्रसाद बंट रहा हो! लोग धक्के खा रहे थे, अफरातफरी मची थी!

और हद तो तब हो गई जब वॉशरूम की दुर्गति पर सवाल उठने शुरू हो गए! खेल मैदान का हाल छोड़ो, बेसिक सुविधाएं भी भगवान भरोसे थीं!

अब सोच, जहां दुनिया को राजा की मेहनत दिखनी थी, वहां लोगों को अव्यवस्थाओं का भंडार दिख रहा था!

विनोद (हंसते हुए, सिर पकड़कर):
“अरे भाई, ये तो राजा की मेहनत पर आयोजकों का गुगली बाउंसर हो गया!”

खेल के अंदर खेल!

आशीष (गंभीर होकर):
“और यही सवाल है, विनोद! यह हुआ कैसे? राजा ने तो कोई कसर नहीं छोड़ी थी, फिर आयोजन का ये हाल क्यों? क्या ये केवल लापरवाही थी या फिर किसी ने जानबूझकर राजा के मेहनत के किले को तोड़ने की ठानी थी? कहीं कोई अपना बनकर खेल में खेल तो नहीं कर रहा था?”

राजा बेचारा इतनी मेहनत करने के बाद भी परेशान, और आयोजक? अरे भाई, वे तो मजे से चाय पी रहे थे, मानो अव्यवस्थाओं का ऑलंपिक जीतकर आए हों!

लेकिन भाई, राजा चुप बैठने वालों में से नहीं था… अभी तो खेल चल ही रहे थे, देखते हैं कि सुधार होता है या सिर्फ खेल में खेल होता है।

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