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रसरंग में मायथोलॉजी देशभर में फैली विभिन्न जगहों से जुड़े हैं हमारे पौराणिक देवता

हिंदू धर्म साधारणत  इतिहास के दृष्टिकोण से सिखाया जाता है – हड़प्पा का काल 4000 वर्ष पहले था, वैदिक काल 3000 वर्ष पहले शुरू हुआ तो पौराणिक काल 2000 वर्ष पहले और भक्ति काल 1000 वर्ष पहले शुरू हुआ। फिर 200 वर्ष पहले औपनिवेशिक काल में सुधारवादी आंदोलन प्रारंभ हुए। लेकिन ये सभी काल पूरे भारत में समान रूप से नहीं आए। भारतीय उपमहाद्वीप विशाल है। हिंदू धर्म संपूर्ण उपमहाद्वीप में पूर्णतः विकसित होकर अचानक से उत्पन्न नहीं हुआ।

ऋग्वेद अपने वर्तमान रूप में लगभग 3,000 वर्ष पहले कुरू-पांचाल क्षेत्र में विकसित हुआ था, जहां आज हरियाणा स्थित है। उपनिषद 2,500 वर्ष पहले गंगा के पूर्वी मैदानों में विकसित हुए, जहां आज बिहार स्थित है। 2000 वर्ष से भी अधिक प्राचीन प्रारंभिक धर्म शास्त्रों के अनुसार केवल उत्तर भारत आर्यावर्त का भाग था। लेकिन 2,000 वर्ष से कम पुराने मनुस्मृति के अनुसार हिमालयों से समुद्रतटों तक संपूर्ण उपमहाद्वीप आर्यावर्त का भाग था।

तमिल संगम साहित्य में उत्तर भारत का उल्लेख है। उसमें आर्य लोगों को चेर, पांड्य और चोल लोगों से भिन्न दिखाया गया है। इन दक्षिणी लोगों का उल्लेख 2,300 वर्ष पुराने सम्राट अशोक के काल के आदेश-पत्रों में मिलता है।

ब्राह्मणों को लगभग 1,500 वर्ष पहले, विशेषकरके दक्षिण भारत में मंदिर निर्माण के लिए भूमि प्रदान की जाने लगी। इसके सबसे पहले उदाहरण आंध्र प्रदेश में तीसरी तथा चौथी सदियों में, ओडिशा और गुजरात में चौथी तथा पांचवीं सदियों में, कर्नाटक और तमिलनाडु में छठीं तथा सातवीं सदियों में और केरल में आठवीं तथा नौवीं सदियों में मिलते हैं। इस प्रकार, ब्राह्मणवाद धीरे-धीरे उत्तर से दक्षिण भारत तक फैलता गया। इसकी पुष्टि आख्यानों में अगस्त्य जैसे ऋषियों की कहानियों से होती है। इन कहानियों के अनुसार अगस्त्य ऋषि उत्तर से दक्षिण भारत गए थे। वे उत्तर भारत से नदियां और पहाड़ ले गए, जो फिर दक्षिण भारत की नदियां और पहाड़ बन गए। इस प्रकार, ब्राह्मणवाद उत्तर भारत की भौगोलिक विशिष्टताएं दक्षिण भारत में ले गया। इसलिए दक्षिण भारत की नदियां दक्षिण गंगा और नगर दक्षिण काशी कहे जाने लगे।

अधिकांश लोग आठवीं सदी के केरल के आदि शंकराचार्य से परिचित हैं। वे मप्र के ओंकारेश्वर क्षेत्र से होते हुए काशी आए और उन्होंने बौद्ध धर्म को चुनौती देकर वेदांत के सिद्धांत का भारत के चारों कोनों में प्रचार किया। लेकिन मंदिर पूजा का श्रेय शंकराचार्य को नहीं, बल्कि रामानुजाचार्य को जाता है, जिन्होंने ग्यारहवीं सदी में तमिलनाडु में वैदांतिक सिद्धांत को मंदिर पूजा से मिलाया। वल्लभनाथ और रामानंद जैसे उनके शिष्य उनके विचार उत्तर भारत ले आए। आज भी आगम मंदिर प्रथाएं उत्तर भारत से अधिक दक्षिण भारत में पाई जाती हैं। किसी समय अभिनवगुप्त जैसे विद्वानों के कारण कश्मीर का क्षेत्र तांत्रिक प्रथाओं और सिद्धांतों का केंद्र था। लेकिन आज यह बात बहुत कम लोग जानते होंगे।

वैदिक काल में इंद्र, अग्नि और सोम जैसे देवता किसी स्थल से जुड़े नहीं होते थे। दूसरी ओर, राम और कृष्ण गंगा के मैदानों से जुड़े हैं। लेकिन तमिलनाडु के आलवार और नायनमार कविताओं तथा कर्नाटक के बासव के वाचनों से पता चलता है कि इन कविताओं में पूजित विष्णु और शिव स्पष्टतया दक्षिण भारत में फैले किसी मंदिर से जुड़े हैं। जैसे भारतभर में क्षेत्रीय भाषाएं विकसित होती गईं, वैसे भक्ति साहित्य में भी भगवान भारत के विभिन्न भागों से जोड़े जाने लगे। ओडिशा में विष्णु, राम और कृष्ण को जगन्नाथ मंदिर से जोड़ा जाता है। शंकरदेव के कृष्ण असम की भूमि में स्थित हैं, जबकि चैतन्य के कृष्ण बंगाल में पूजित हैं। महाराष्ट्र में जब ज्ञानेश्वर और एकनाथ ने कृष्ण का उल्लेख किया तो वह पंढरपुर के विट्ठल पांडुरंग के संदर्भ में होता था। कर्नाटक में पुरंदरदास उडुपी मंदिर के कृष्ण का उल्लेख करते थे। आंध्रप्रदेश के अन्नमाचार्य के लिए तिरुपति उत्तर भारत के मथुरा और काशी से कई अधिक महत्वपूर्ण था। केरल में कृष्ण गुरुवायूर में विराजमान हैं।

आजकल हिंदुओं को एकमात्र वोट बैंक में संगठित करने का प्रयास किया जा रहा है। ऐसा करके लोग हिंदू धर्म के फैलाव की जानबूझकर उपेक्षा करते हैं, इस भय से कि उसकी विविधता से हिंदू धर्म बंट जाएगा। वे हिंदू धर्म को ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखना पसंद करते हैं, जो हिंदी भाषी क्षेत्रों में केंद्रीय है। लेकिन वे भूल जाते हैं कि इस क्षेत्र की संस्कृति पूर्व, पश्चिम और दक्षिण भारत के विशाल मंदिर परिसरों और प्रथाओं से विविधता लिए हुए हैं।

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