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तेजी से घट रही नैनीझील की गहराई, अस्तित्व पर संकट

नैनीताल। नैनीझील की गहराई तेजी से घट रही है। बीते चार दशक में नैनीझील की गहराई दस मीटर से अधिक घट चुकी है जिससे इसके अस्तित्व पर संकट है। इसके बावजूद 1990 के बाद से इसकी बैथीमेटरी स्टडी (तलहटी का अध्ययन) नहीं हुआ है, जिससे वास्तविक स्थिति पता चल सके। इसके अलावा विभिन्न अवसरों पर विशेषज्ञों की ओर से बार बार चेताए जाने के बाद भी नगर की धारण क्षमता का अध्ययन नहीं किया जा रहा है जिससे आम जन सहित विशेषज्ञ भी चिंतित हैं।

यह विचार ”जल विज्ञान आंकलन और उत्तराखंड के पर्यटक शहरों में घटते जल संसाधनों के सामाजिक-आर्थिक निहितार्थ” विषय पर एक दिवसीय कार्यशाला में विशेषज्ञों ने रखे। कार्यशाला का आयोजन सेंटर फॉर इकोलॉजी डेवलपमेंट एंड रिसर्च (सीडर) ने भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) रुड़की और वन अनुसंधान संस्थान (एफआरआई) के सहयोग से यहां किया था।

वक्ताओं ने कहा कि पर्वतीय क्षेत्रों की पारिस्थितिकी के संतुलन के लिए ज्ञान और जीवन यापन के पारंपरिक तौर तरीकों को अपनाना और स्थानीय लोगों के अनुभव और जानकारियों के आधार पर योजना बनाया जाना आवश्यक है। इनकी अनदेखी हिमालयी क्षेत्रों में विपदा और आपदा का कारण बन रही है।

सीडर के अधिशासी निदेशक डाॅ. विशाल सिंह ने बताया कि पहाड़ में जल की बढ़ती आवश्यकता और घटते जल स्रोतों सहित विचार-विमर्श करने और हिमालयी शहरों की जल सुरक्षा और स्थिरता के बारे में एक आम समझ विकसित करने और चुनौतियों से निपटने को कारगर रणनीति बनाने के उद्देश्य से कार्यशाला आयोजन किया गया है जिसमें विभिन्न पृष्ठभूमि से चुनिंदा विशेषज्ञों से आर विचार-विमर्श के आधार पर रिपोर्ट तैयार की जाएगी।

कार्यशाला में आईआईटी रुड़की के सहायक प्रोफेसर सुमित सेन, सीडर के डा. विशाल सिंह, कुमाऊं विवि के फॉरेस्ट्री के प्रोफेसर डा. आशीष तिवारी, पत्रकार राजीव लोचन साह, पर्यावरणविद विनोद पांडे, कुमाऊं विवि के पत्रकारिता के विभागाध्यक्ष प्रो. गिरीश रंजन तिवारी, चिया संस्था के कुंदन बिष्ट, नीता राणा, सुमित साह, करण अधिकारी, निधि साह आदि ने विचार रखे। संचालन अन्विता पांडे ने किया।

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